युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक
अंतर्द्वंद
शौर्य
ने अपने शिष्यो को इस स्तर पर लाने हेतु पंद्रह वर्ष परिश्रम किया है। और केवल शौर्य
ने नहीं अपितु शौर्य के अन्य साथी तपोवनियों विराट, देव, तेजस एवं अंगद ने भी मध्यकाल
में इनके शिक्षक की भूमिका निभाई है किंतु उन सभी की समयावधि सीमित रही। शिक्षणकाल
में कुछ विशेष विधाएँ इन शिष्यों ने उनसे प्राप्त की हैं। सभी ने एक ही प्रकार की शिक्षा
प्राप्त की लेकिन शारीरिक व मानसिक प्रकृति के अनुसार सभी में उनके अपने गुण उन्नत
हो सके। मेध निसंदेह धनुर्विद्या में सबसे श्रेष्ठ बन चुका था और इसके लिए तपोवनी सहदेव
ने शिक्षक के रूप में मेघ पर विशेष ध्यान दिया था। गति एवं चपलता प्रताप की विशेषता
थी। विधुत अपने कद और काया के अनुरूप पांडवों में भीम के समतुल्य था। दुष्यंत को सभी
अस्त्र एवं शस्त्र चलाने का अभ्यास बाल्यकाल से ही था जिन पर यहाँ उसने महारत हासिल
कर ली थी। अस्त्र एवं शस्त्रों पर वेग का नियंत्रण भी अच्छा था किंतु वेग की विशेषता
उसकी स्थिरता व एकाग्रता थी।
भाला युद्ध का अभ्यास चल रहा था, दुष्यंत और वेग आमने-सामने थे। दोनों के भाले बिजली की भाँति एक दूसरे से टकरा रहे थे, टक्कर सदा
की भाँति बराबर की लग रही थी। दोनों के पास एक दूसरे के वारों
का हर जवाब था। दोनो अक्सर इस प्रकार अभ्यास करते रहे हैं।
“मैनें
कह दिया है आज विजेता वेग होगा।” प्रताप पास में खड़े मेघ से
कह रहा था।
“हो ही नहीं सकता, विजेता होगा दुष्यंत।”
“दुष्यंत थक चुका है और वेग उस पर हावी हो रहा है, आज दुष्यंत की हार निश्चित है।” प्रताप ने कहा।
“थकने तो वेग भी लगा है, ध्यान से देखो प्रताप। दुष्यंत पर विजय प्राप्त करना आसान नहीं है बालक।”
सच में दोनों पसीने से नहा चुके थे, प्रताप
वेग का तो मेघ दुष्यंत का मनोबल बढ़ाने के लिए चिल्ला
रहे थे।
“अभ्यास को केवल अभ्यास की भाँति देखो, यह कोई जुए का खेल नहीं है।” विधुत ने कहा, वह बस सहजता से युद्धाभ्यास देख
रहा था परन्तु प्रताप और मेघ सदा की भाँति आँखें गड़ा के बैठे थे।
“शांत रहो विधुत।” मेघ ने बिना उसकी ओर देखे कहा।
“बहुत लंबा हो गया है अब परिणाम भी दिखा दो।” प्रताप उतावलेपन से बोल रहा था।
“हाँ, हाँ…शाबाश दुष्यंत शाबाश…गया,
गया…बस जाने वाला है वेग…हा हा...”
“वेग नहीं हारेगा आज।”
“चुपचाप आगे देखो प्रताप, अभी पता चल जाएगा कि
कौन जीतेगा और कौन हारेगा?”
वेग अचानक दुष्यंत पर हावी होने लगा, दुष्यंत
का भाला उसके हाथ से छूटने ही वाला था परन्तु तभी दुष्यंत के
पैरो का वार वेग संभाल ना सका और उसका शरीर दूर पेड़ से जा टकराया। वह धरती पर आ गिरा और फिर उसके उठने से पहले ही दुष्यंत ने उसकी गर्दन से
अपना भाला लगा के उसे हार स्वीकारने के लिए बाध्य कर
दिया।
“वो मारा... शाबाश दुष्यंत… देखा प्रताप, जीत गया ना दुष्यंत।” मेघ ने प्रताप को चिढ़ाने के लिए कहा।
“तुमसे
युद्ध में जीत पाना बहुत कठिन है दुष्यंत,” वेग ने भाला नीचे करते हुए कहा था।
“बहुत
ही बढ़िया और सटीक प्रहार, मुझे अभी और मेहनत की आवश्यकता है तुम्हे मात देने के लिए।”
“वेग,
मुक़ाबले मे तो तुम भी कम नहीं हो।” दुष्यंत ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया, दोनों हाँफ रहे
थे... “शुरुआत तुम्हारी शानदार थी और मुझे तो लगा था कि आज तुम मुझे परास्त कर दोगे।”
“वह
इतना आसान नहीं है दुष्यंत। ”
“केवल
अंतिम समय में मेरा पलड़ा भारी था वेग, तुम यह जानते हो। ”
“वो
मैं ही जानता हूँ तुम्हारे सामने मैं अंत तक कैसे डटा रहा।”
“मेरी
भी वही स्थिति थी, हा हा हा।” दुष्यंत हँसने लगा।
“तुम
पर विजय प्राप्त करना तुम्हारे किसी प्रतिद्वंदी के लिए कठिन है दुष्यंत। परंतु बाईं
ओर की तुम्हारी सुरक्षा में अभी सुधार की आवश्यकता है।”
“मैं
ध्यान रखूँगा।” दुष्यंत ने कहा।
“क्या
कठिन था वेग? अच्छा भला जीता हुआ दाँव हार गये तुम, सदा की भाँति।” प्रताप बीच में
बोला।
“तो
क्या हुआ प्रताप? यह केवल अभ्यास था कोई युद्ध नहीं, हार जीत के बारे में इतना विचार
क्यों?”
“फिर
भी तुम इतने कुशल लड़ाके होते हुए भी अंत तक पहुँचते-पहुँचते जाने क्यों पीछे रह जाते
हो?” प्रताप हल्का खिजते हुए कह रहा था।
“अगली
बार मैं दुष्यंत को मात मैं अवश्य दूँगा।”
“हा… हा… देख लेंगे
अगली बार भी, तू इसके साथ रहेगा तब तक तो यह कभी नहीं
जीतेगा।” मेघ ने प्रताप को छेड़ने के लिए कहा।
“ठहर अभी तुझे बताता हूँ।”
इस अभ्यास पर गुरु शौर्य की आखें भी
थी, अभ्यास समाप्त होने के साथ वो भी उनके बीच आ पहुंचे
थे। उन्हें देखकर सब शांत हो गये।
“अद्भुत, तुम दोनों का प्रदर्शन बहुत अद्भुत था।” शौर्य खुश होते हुए कह
रहे थे। “प्रताप, वेग सही कह रहा
है, यहाँ हार या जीत के कोई अर्थ नहीं हैं क्योंकि
यह समय तो केवल हमले को समझने का है और यही वो है जो आने वाले समय में अनुभव बनकर
तुम्हारे साथ रहेगा। ये दोनों ही अद्वितीय है और मुझे भरोसा है कि जब ये असली युद्ध के मैदान में होंगे तो इन
दोनों को ही हराना इनके शत्रु के लिए संभव नहीं
होगा।”
“जी गुरु जी।” प्रताप ने सहमति से कहा।
“और हाँ, केवल ये दोनों ही नहीं बल्कि मुझे आप
सब पर भरोसा है, भविष्य में आप सब शत्रु के लिए ना
पार कर सकने वाली चुनौती रहोगे।” शौर्य ने सब को एक दृष्टि देखा। “क्या ऐसा नहीं है?”
सब ने मुसकुरा के हाँ में सर हिलाया। “हाँ, ऐसा
ही है गुरु जी।” विधुत ने कहा, वह तिरछी आँखों से प्रताप और मेघ को देख
रहा था।
“क्या हुआ प्रताप तुम्हें?” प्रताप और मेघ दोनों
जो अब तक झगड़ रहे थे शौर्य के वहाँ आ
जाने से एकदम मौन हो गये थे।
“मेरा उद्देश्य तुम्हें असहज करने का कतई नहीं था प्रताप। मैं तो बस यूँ ही आ गया था, तुम जारी रखो।”
शौर्य फिर वेग की ओर मुड़े। “तुम मेरे
साथ आओ वेग, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।” शौर्य एक दिशा में बढ़ते हुए बोले तो वेग
उनके पीछे चल दिया। उनके जाते ही मेघ और प्रताप फिर से
प्रारम्भ हो गये थे।
“अपने
वचन के अनुसार अश्वों को नहलाने और सुखी लकड़ियाँ लाने का कार्य आज तुम करोगे।”
मेघ ने धीमे स्वर में प्रताप से कहा।
“हाँ
ठीक है,” प्रताप ने मुँह बनाते हुए कहा।
आज से पहले भी शौर्य ने कई बार वेग से इस प्रकार बात
की थी परंतु आज दुष्यंत को यह थोड़ा विचित्र लगा था, उसने इस पर से
ध्यान हटाने का प्रयास किया और अस्तबल की ओर चला गया।
“तुम्हें क्या इसी में खुशी मिलती है वेग?” शौर्य ने कहा
तो वेग आश्चर्य से उनका चेहरा देखने लगा।
“ऐसे क्या देख रहे हो वेग? क्या तुम समझते हो
तुम जो कर रहे हो वह मुझसे छुपा हुआ है?” शौर्य ने
रहस्य वाली मुसकुराहट के साथ पूछा और फिर कहा। “वेग मुझे मालूम है
तुम जानबूझकर दुष्यंत से हारते हो और यह बात मुझे बहुत पहले से पता है मेरे बच्चे।” वेग निरुत्तर सा खड़ा था शौर्य के आगे।
“हा हा हा…मैं तुम्हारा गुरु हूँ वेग, जिस वार को तुम आसानी से संभाल सकते हो उसी पर मात खाओगे तो क्या मुझे पता
नहीं चलेगा?” वेग अब भी चुप था। “अब
इस बात को स्वीकार भी करो वेग।”
“हाँ गुरु जी, आपने सही पहचाना, परंतु मुझे अपने
इन मित्रों को मात देना अच्छा नहीं लगता। मेरी योग्यता मेरे पास है गुरु जी, आवश्यकता होने पर उसका
मैं सही उपयोग करूँगा परंतु अगर मेरे यहाँ परास्त होने से दुष्यंत का या किसी का भी मनोबल बढ़ता
है तो मैं इसमें ही खुश हूँ।”
“तुम्हारी सोच का मैं सम्मान करता हूँ वेग,
इसीलिए मैंने आज से पहले कभी तुमसे यह प्रश्न नहीं किया परंतु अब जब समय आ गया है
तुम सब से अलग होने का तो तुमसे यह पूछ लेने का जी
चाहा… बस।” वेग मुसकुरा दिया।
“परंतु आपने यह कब जाना गुरु जी?”
“उसी दिन जब तुम पहली बार दुष्यंत से पराजित हुए थे।” वेग ने आश्चर्य से शौर्य को देखा। “हाँ वेग मुझे
स्मरण है दुष्यंत का पहली बार इस आश्रम में आना, वह
कितना असहज था पहली बार तुम लोगों के बीच आकर, उसे
इस जीवन का अभ्यास नहीं था, वह महलों में से जो
आया था। मुझे लगा दुष्यंत के लिए यह कठिन होगा परंतु
तुम्हारे साथ ने उसे सहारा दिया और शीघ्र ही वह भी तुम में से ही एक
बन गया।”
थोड़ा
रुक के शौर्य ने फिर कहा। "वेग, यहाँ तक तो ठीक था लेकिन अब समय अपने स्वयं के
उचित मूल्यांकन का है। छोटा सा भी भ्रम बड़ी चूक का कारण बन सकता है।"
शौर्य
के अंतिम वाक्य को सुन वेग विचार की मुद्रा में उन्हे देखने लगा तो शौर्य ने आगे कहा।
“अच्छा अब जब तुमने अपने मन की बात मुझसे कही है, तो अब एक बात मैं भी तुम्हें बताना
चाहता हूँ।”
“कहिए
गुरु जी।”
“दुष्यंत यहाँ एक शिष्य बनकर नहीं आया था क्योंकि
हमने उसे इस शिक्षा के लिए कभी चुना ही नहीं था। हमारे
मित्र, दुष्यंत के पिता राजा बाहुबल के बार-बार
प्रार्थना करने के कारण हमने दुष्यंत को एक बार
परखने के लिए सहमति दे दी थी। दुष्यंत का प्रारम्भिक समय उसे स्वयं को
प्रमाणित करने के लिए था और अगर
वह इस जीवन से तालमेल नहीं कर पाता तो उसका वापस लौटना
तय था। तुम जानते हो तब दुष्यंत का स्वभाव यह नहीं था। उसके भीतर तब एक उग्रता थी जो
धीमे धीमे शांत हुई। तुम सभी ने उसे सहारा दिया किंतु मैं इसका विशेष श्रेय तुम्हे
ही दूँगा।”
“उससे
स्वयं ने भी बहुत परिश्रम किया है गुरुजी।”
“हाँ
मैं जानता हूँ, उसे चुनने का पछतावा नहीं है मुझे, लेकिन... ।” शौर्य एक पल के लिए
चुप हुए।
“लेकिन...?”
वेग ने पूछा।
“लेकिन
उसके भीतर जो अग्नि है उसे तुम्हारी शीतलता की अभी भी आवश्यकता है।”
“ऐसा
ही होगा गुरु जी।”
“एक बात और, यह बात हमारे दोनों के बीच में ही रहनी चाहिए, समझे?”
“वेग...” तभी प्रताप ने दूर से पुकारा।
“आप निश्चिंत रहिए गुरु जी। मुझे अब आज्ञा दीजिए, मुझे जाना होगा।” शौर्य ने मुसकुरा के सहमति दे
दी।
“अभी आया प्रताप, दुष्यंत को भी बुलाओ।” वेग ने चिल्ला के उत्तर दिया।
आज से पहले किसी के मन में यह विचार भी
नहीं आया था कि भविष्य में उन्हीं में से कोई शौर्य का स्थान भी लेगा। और अब साथ में ही इस अद्भुत
शक्ति के बारे में जानने के बाद दुष्यंत का एकांत में सोचना अधिक हो गया था। किसको यह शक्ति मिलेगी? वह इसकी गणित में उलझने
लगा था। उसे कभी वेग इसके लिए उत्तम प्रतीत
होता परंतु दूसरे क्षण ही उसका मन चुनाव का आधार तलाशने लगता। युद्ध के मैदान में वेग उसके निकट था
परंतु उससे आगे नहीं था। अनुशासन, आज्ञाकारिता और परिश्रम में वह भी वेग के समान ही था फिर वेग के
स्थान पर उसे क्यों नहीं चुना जाए? अगले क्षण वह सोचता कि वेग उसका बहुत अच्छा मित्र है, उसे वेग के बारे में ऐसा नहीं सोचना चाहिए।
“दुष्यंत अश्वों को खोल दो अब, कहाँ खोए हो?” प्रताप की आवाज से दुष्यंत का ध्यान भंग हुआ।
खुलने के साथ ही सारे अश्व घाटी की ओर दौड़
चले और उनके पीछे मेघ, प्रताप, विधुत और वेग भी
परंतु दुष्यंत आज उनसे एक अंतराल पर था।
*
सब
कुछ सहज ही था परंतु पिछले एक-दो दिनों से दुष्यंत के मन में कुछ अशांति व्याप्त थी।
उसका ध्यान अपने अभ्यास से अधिक कहीं और भटकने लगा था। आश्रम से दूर झरने के किनारे,
बहते पानी की धारा में कहीं खोया सा दुष्यंत अपने अतीत में जाने लगा था। झरने का साफ
पानी उसे दर्पण सा प्रतीत हो रहा था जिसमें दुष्यंत वो सब कुछ साफ-साफ देख पा रहा था
जो कि वो देखना चाहता था।
राजा
बाहुबल का इकलौता पुत्र दुष्यंत, आम बालकों की भाँति उसे खिलौनों से खेलना कभी नहीं
भाया था, इसके विपरीत उसकी रूचि अस्त्र एवं शस्त्र चलाने में कहीं अधिक थी। छोटी सी
आयु में हथियारों पर उसका नियंत्रण देखकर कोई भी हतप्रभ हुए बिना नहीं रह सकता था।
नववर्ष के उत्सव में इस बार भांति भांति की स्पर्धाएं होनी थी। दुष्यंत ने जब हठ नहीं
छोड़ी तो राजा बाहुबल मना नहीं कर सके और तलवारबाजी की स्पर्धा में दुष्यंत का भाग लेना
तय हो गया। दुष्यंत ने सभी चरण आसानी से पार
कर लिए थे और मुकाबले के आखिरी चरण में पहुँच गया था। दुष्यंत आस पास के क्षेत्रों
में चर्चा का विषय बन चुका था। विशेष तौर पर दुष्यंत के मुकाबले को देखने के लिए आज
बहुत बड़ी भीड़ वहाँ उपस्थित थी। एक तरफ दुष्यंत जिसने अभी अपने तेरहवें वर्ष में प्रवेश
किया था और उसके सामने उदिष्ठा राज्य का सबसे कुशल तलवारबाज नरपति खड़ा था। बाहुबल नरपति
की क्षमता से परिचित थे इसलिए वो दुष्यंत के लिए थोड़े चिंतित थे। नरपति भी जानता था
कि दुष्यंत पिछले सभी मुकाबले जीतकर इस अंतिम चरण में पहुंचा है तो कुछ तो विशेष दुष्यंत
में है। मुकाबला शुरू हुआ और नरपति ने आक्रामक
रूप से दुष्यंत पर ताबड़तोड़ वार करना शुरू कर दिया। वह दुष्यंत को वार करने का मौका
ही देना नहीं चाहता था। दुष्यंत अपनी ढाल से उसके वारों को झेलते जा रहा था लेकिन कुछ
ही देर में दर्शकों ने दुष्यंत के संभल पाने की आशा छोड़ दी थी। उलट इसके दुष्यंत ने
अपने प्रतिद्वंदी को थकाने की रणनीति बना ली थी और अपनी ढाल को मजबूती से थामे रखा।
अचानक दुष्यंत ने अपना पैंतरा बदल लिया। वही तेजी से नरपति की टांगो के बीच से फिसल
कर उसके पीछे जा खड़ा हुआ। नरपति के पलटने के साथ बिजली की गति से उसने वार करने शुरू
कर दिए, नरपति के लिए जिन्हें संभालना भारी होने लगा। इस आकस्मिक उलटफेर से भीड़ उत्साह
से भर उठी, बाहुबल भी अपने आसन से उठ खड़े हुए। दर्शकदीर्धा दुष्यंत दुष्यंत के शोर
से गूंज उठी। दुष्यंत ने एक छलांग के साथ निर्णायक अंतिम वार कर दिया जिसे नरपति ने
अपनी ढाल से रोकने का प्रयास तो किया लेकिन दुष्यंत के दूसरे हाथ में थमी ढाल के प्रति
वो लापरवाह हो गया जो उसकी कनपटी से टकराई थी। नरपति धराशायी हो चुका था और दुष्यंत
उसके सीने पर चढ़ खड़ा हुआ था।
बाहुबल
के सामने दुष्यंत पहुंचा तो बाहुबल ने उसे बाहों में भर लिया।
“वाह दुष्यंत वाह, तुमने बहुत ही थोड़े समय में बहुत कुछ सीख लिया
है, तुम्हारा प्रदर्शन तो मेरी सोच से कहीं अधिक आश्चर्यजनक था। सही
कहा ना मैंने विक्रम?” बाहुबल ने अपने छोटे भाई विक्रम
की ओर देखते हुए कहा।
“निसंदेह महाराज, दुष्यंत की वीरता के कारण पूरे विश्व
में एक दिन सूर्यनगरी का नाम विख्यात होगा।” विक्रम ने गर्व से कहा था।
बाल्यकाल से ही उसमें योद्धा बनने के सभी गुण उपस्थित थे, साथ ही साथ वह चतुर और अपने पिता राजा
बाहुबल का आज्ञाकारी पुत्र भी था। सब कुछ था उसके पास, स्नेह करने वाले पिता, इतना बड़ा साम्राज्य, सैकड़ों सेवक। दुष्यंत का बाल्यकाल बहुत आनंद
में व्यतीत हो रहा था और भविष्य के लिए भी वह निश्चित था। उसने सदा यही जाना था कि एक दिन उसे अपने
पिता का स्थान प्राप्त होनी है और वह भी अपने पिता
की भाँति एक महान राजा के रूप में जाना जाएगा। इसके विपरीत बाहुबल ने दुष्यंत के लिए कुछ और ही सोचा था। जिस प्रकार बाहुबल ने अपना जीवन मानव धर्म
को समर्पित कर दिया था उसी प्रकार वे दुष्यंत के जीवन को भी सार्थक बनाना चाहते थे।
और इसलिए उन्होंने दुष्यंत के भविष्य के लिए एक निर्णय ले लिया। उन्होंने अपने इकलौते पुत्र को पूरी तरह मानव जाति के कल्याण हेतु समर्पित करने का इरादा बना लिया था। और इसके लिए
सबसे उत्तम मार्ग उन्हे तपोवनी के रूप में नज़र आ रहा था। बाहुबल ने
अपने निर्णय को दिशा देने के बारे में सोचा और इसके लिए आवश्यक था महायोद्धा शौर्य
से मिलना। बाहुबल ने शौर्य को बुलवाया और उनसे अपने मन
की बात कही।
“महाराज, मैं आपकी सोच का बहुत सम्मान करता
हूँ परंतु... मैं आपको अभी किसी भी प्रकार का आश्वासन देने की स्थिति में नहीं हूँ।” शौर्य के जवाब
से बाहुबल थोड़ा विचलित से हो गये।
“परंतु महायोद्धा, क्यों? क्या दुष्यंत में कोई
कमी शेष है?” बाहुबल ने पूछा।
“नहीं महाराज, दुष्यंत बहुत ही वीर बालक है और इसमें कोई संदेह नहीं है
परंतु…” शौर्य इतना कहकर कुछ रुके।
“परंतु क्या महायोद्धा?”
“महाराज, क्योंकि किसी भी तपोवनी के चुनाव का सबसे
पहला नियम यही है कि इसमें किसी की संस्तुति के लिए कोई स्थान नहीं होता
है। दुष्यंत बहुत कुशल है
परंतु एक तपोवनी होने के लिए जो गुण आवश्यक हैं वह
दुष्यंत में हैं या नहीं, यह हम और आप तय नहीं कर
सकते।” शौर्य ने कहा तो बाहुबल थोड़ा चिंतित से हो गये।
“तो
यह कैसे जाना जाएगा महायोद्धा? आप चाहें तो दुष्यंत की परीक्षा ले सकते हैं। मुझे
विश्वास है कि दुष्यंत आपके हर मानदंड पर खरा उतरेगा, आप एक बार दुष्यंत को
अवसर तो दीजिए।” बाहुबल अभी
भी आशाहीन होने को तैयार नहीं थे।
“महाराज, एक तपोवनी के लिए ऐसी कोई चयन प्रक्रिया
होती ही नहीं है।”
“कोई तो कसौटी होगी महायोद्धा शौर्य, कोई तो चयन
प्रक्रिया होगी।”
“महाराज, जीवन में अपने आप कुछ घटनाएं और परिस्थितियाँ मिलकर अनजाने में ही
तपोवनी की परीक्षा लेती हैं जो सोच विचार कर या जानबूझकर
संभव नहीं हो सकता है।” शौर्य ने अपनी विवशता बताई।
“महायोद्धा, कोई तो रास्ता होगा, दुष्यंत को
मानव जाति के हित में समर्पित करने का।” बाहुबल अभी भी
विनती कर रहे थे।
“हैं महाराज, कोई एक नहीं बल्कि सहस्त्र रास्ते हैं मानव कल्याण हेतु कुछ करने के लिए। महाराज, केवल तपोवनी बन कर ही मानव जाति के लिए कुछ किया जा सकता है यह कोई आवश्यक नहीं है। क्या आपने अपने जीवन में बिना एक तपोवनी हुए यह सब नहीं
किया है? यह मैं नहीं हर कोई जानता है।” शौर्य बाहुबल को समझाने का प्रयास कर रहे थे।
दुष्यंत को महलों में रहने की आदत है, हर
समय उसके आस पास सैकड़ों सेवक रहते हैं, उसे आदत हो चुकी है हर सुख सुविधा की। जंगल का
जीवन अपनाना उसके लिए थोड़ा कठिन होगा परंतु मुझे पूरा भरोसा है कि
दुष्यंत आपके स्थान पर आकर आपकी अपेक्षाओं के साथ अन्याय नहीं करेगा।”
“महायोद्धा, मैंने अपने जीवन में थोड़ा या बहुत जो भी किया वह आपके सामने
कुछ भी नहीं है। मेरी आपसे विनती है, आप बस एक बार दुष्यंत को अपनी परीक्षा में आजमा के देखिए वह आपको निराश
नहीं करेगा।” बाहुबल शौर्य को मनाने का हर संभव प्रयास कर रहे थे। “मेरी आपसे विनती है
आप इतना शीघ्र कोई निर्णय ना लें। आपको जितना समय चाहिए आप लीजिए परंतु उसे अपनी योग्यता को सिद्ध करने का एक अवसर मिलना चाहिए। मैं आपको
वचन देता हूँ कि इन महलों, सेवकों या इन सुख सुविधाओं
को मैं दुष्यंत की दुर्बलता नहीं बनने दूंगा। अतिशीघ्र
उसे इनके बिना रहना मैं स्वयं सीखा दूंगा।”
“महाराज, आप मुझे दुविधा में डाल रहे हैं...” शौर्य
भी अपने आप को विचित्र सी स्थिति में महसूस कर रहे थे।
अपने आप में कहीं गुम दुष्यंत को पता ही नहीं चला कि कब
विधुत उसके पास पहुँच गया था।
“कहाँ खोए हो दुष्यंत? मैं कब से तुम्हें खोजने
का प्रयास कर रहा हूँ।” विधुत ने दुष्यंत के कंधे पर
हाथ रखते हुए कहा तो अचानक उसकी तंद्रा भंग हुई।
“विधुत, तुम कब आए?” दुष्यंत ने चौंकते हुए
विधुत से पूछा।
“मैं तो बस अभी ही आया हूँ परंतु बहुत देर से
तुम्हें खोजने का प्रयास कर रहा था। तुम यहाँ एकांत में
क्या कर रहे हो मित्र?”
“कुछ नहीं विधुत, तुम बताओ क्या कोई विशेष बात है जो तुम मुझे ढूंढ रहे थे?” दुष्यंत ने उठते हुए प्रश्न किया।
“शायद कुछ विशेष ही है क्योंकि गुरु जी ने तुम्हें शीघ्र बुलाने को कहा है। अब बिना विलंब के हमें गुरु जी के पास चलना चाहिए क्योंकि तुम्हें ढूँढने
में समय पहले ही व्यर्थ हो चुका है।” विधुत जल्दी में
था।
“ओह
हाँ, मैं तो भूल ही गया था, मुझे तो सिहोट के लिए निकलना है।” दुष्यंत को जैसे कुछ
स्मरण हुआ। “चलो जल्दी, मैं भी ना जाने कैसे भूल गया?”
“सिहोट!
वो क्यों?”
“गुरु
जी ने वहाँ एक कारीगर को कुछ शस्त्र बनाने का काम सौंपा था और उसने आज का समय दिया
था। वो शस्त्र लेने के लिए मुझे जाना था।” दोनों साथ में आश्रम
की ओर चल पड़े।
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