युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक
कंठी
साँझ होने वाली थी, पक्षियों का शोर आस पास
के पेड़ों में गूँज रहा था और साथ में झरने से कल-कल का शोर भी सुनाई दे रहा था। इन सब के बीच में एक और भी ध्वनि गूँज रही
थी। वह कर्कश सी ध्वनि थी
वेग की कुल्हाड़ी की, जिसे वेग सुखी हुई लकड़ियों को
काटने के लिए चला रहा था। परंतु अचानक वेग ने अपने
हाथों को रोक लिया और कुछ सुनने का प्रयत्न करने
लगा। वेग का यह अचानक बदला व्यवहार विधुत को थोड़ा
अटपटा सा लगा।
“क्या हुआ वेग?”
विधुत ने पूछा तो वेग ने उसे हाथ से चुप रहने का इशारा किया। “तुमने कुछ सुना?”
वेग अभी भी वह अलग सा स्वर सुनने का
प्रयत्न कर रहा था। विधुत ने जब
ध्यान दिया तो उसे भी अब सुनाई देने लगा,
सभी पक्षियों के बीच में किसी एक पक्षी की यह करुणा भरी आवाज थी जो कुछ देर के अंतराल में रुक- रुक कर के आ रही थी।
“हरियल
चिड़िया का झुंड है।” विधुत ने आवाज को पहचानते हुए कहा।
“कोई
साथी है उनका घायल।”
“या
फिर संकट में।”
वेग ने अपनी कुल्हाड़ी को एक ओर रख दिया और आवाज की दिशा
में बढ़ चला। यह आवाज झरने की ओर से आ रही थी, विधुत भी उसके साथ चल दिया। पास जाने पर दिशा का सही से ज्ञान होने लगा था, आवाज झरने के मुहाने
की ओर से आ रही थी। पास
पहुँच कर दोनों थोड़ा रुके और आवाज के दुबारा आने की प्रतीक्षा करने
लगे। इस बार आवाज आई तो दोनों की गर्दन उपर उठी, और जब उठी तो उठी की उठी ही रह गई। विधुत ने सामने का दृश्य देखकर अपना सर पकड़ लिया, वेग भी सोच में पड़ गया था। दोनों ने एक दूसरे
को देखा फिर पीछे मुड़ के प्रताप और मेघ को देखने लगे जो इन दोनों के अचानक काम
छोड़ कर यूँ झरने के किनारे आकर खड़े होने को आश्चर्य से
देखने लगे थे। क्योंकि आश्रम के भीतर उस पक्षी की आवाज नहीं पहुँच रही थी इसलिए दोनो को इसका कारण
नहीं पता था। वेग ने उन्हें इशारा करके अपनी ओर आने को
कहा तो प्रताप और मेघ की उत्सुकता भी बढ़ गई थी। दोनों
अपने-अपने काम छोड़ कर उसी दिशा में चल दिए। थोड़ा आगे
जाने पर उन्हें भी वह आवाज सुनाई दी तो दोनों फुर्ती से
दौड़ कर उनके पास पहुँच गये। विधुत के इशारे पर जब
उन्होंने अपनी गर्दन उपर उठाई तो उनका भी सर चकरा
गया। झरने के मुहाने पर बड़े से बरगद की एक छोटी सी साख
में वह परिंदा मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था। वह बहुत
उँचाई पर था इसलिए वास्तविक स्थिति आसानी से नहीं पता चल रही थी परंतु फिर भी
ध्यान से देखने पर देखा जा सकता था कि उसके पैरो में कोई डोर उलझी हुई थी जिसमें
फँस कर वह उलटा लटक गया था। वह वहाँ से मुक्त
होने का असंभव प्रयास किए जा रहा था। कुछ और पक्षी जो उसी की प्रजाति के थे
उसके आस पास मंडरा रहे थे और अपने साथी के लिए चिंतित से
थे। निर्बोध पक्षियों को उसे बचाने का कोई रास्ता समझ
में नहीं आ रहा था।
पक्षी का फँसना परेशान होने का कारण नहीं था, कारण
बल्कि यह था कि वह कहाँ जाकर फँसा था? उस साख के नीचे
देखा तो सब का सर घूम गया। बरगद की वह डाल जिससे
यह साख जुड़ी थी झरने के मुहाने के एकदम उपर आई हुई थी और वह साख उस मुहाने के कोई
पचास हाथ उपर लटक रही थी। अभी तक सब मौन
होकर उस पक्षी के संकट
का अनुमान ही लगा रहे थे।
“इसे पूरे जंगल में फँसने के लिए यही एक स्थान मिला था?” प्रताप ने गंभीर होकर कहा।
“मैं विधुत से पूछ चुका हूँ, इसे कोई दूसरा
रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है और मुझे भी नहीं। तुम में
से किसी को कुछ रास्ता समझ में आ रहा है?” वेग ने सब की
ओर देखकर पूछा।
“मैं उस शाखा को निशाना बना सकता हूँ।” मेघ
ने युक्ति बताई जो अपना धनुष भी साथ में लाया था। इसके साथ ही वह धनुष को उस दिशा में तान के निशाने की सफलता की संभावना
जाँचने लगा।
“नहीं, फिर तो पहले वाला रास्ता ही ठीक रहेगा।” वेग
ने अपना कदम उस पेड़ की ओर बढ़ा दिया था।
“मगर क्यों? विश्वास रखो मैं नहीं चुकूंगा।” मेघ ने चौंक कर कहा।
“मेघ, तुम पर भरोसा है परंतु तुम उस टहनी को पेड़ से अलग तो कर सकते हो, उस पक्षी को टहनी से मुक्त करना संभव नहीं
है। पक्षी उड़ सकता है परंतु टहनी के साथ नहीं, नीचे गिरेगा तो सीधा झरने में बह जाएगा।” वेग
ने नीचे झरने की ओर इशारा करके कहा, मेघ ने भी उसकी बात
को समझ कर अपना निर्णय बदल दिया।
“परंतु वेग, तुम गिरे तो तुम भी वहीं जाओगे जहाँ वह पक्षी जाने वाला है।” प्रताप ने कहा। “वहाँ पहुँचना संभव नहीं होगा वेग। आगे से डाल
बहुत पतली है, तुम्हारा भार तो बिल्कुल भी नहीं संभाल पाएगी।”
“और कोई रास्ता भी तो नहीं है प्रताप। फिर हमारा धर्म भी तो यही कहता है, किसी भी प्राणी को
संकट में देख हम पाँव पीछे भी तो नहीं कर सकते।” वेग ने
प्रताप को समझाया।
“परंतु…” प्रताप ने कहना चाहा कुछ।
“विश्वास रखो मैं पहुँच सकता हूँ वहाँ।” वेग ने
उसकी बात को वहीं रोककर कहा।
“अगर उसके बचने की थोड़ी भी आशा है तो ठीक
है, मैं जाता हूँ वहाँ।” विधुत आगे बढ़ते हुए बोला।
“यह
ठीक नहीं है विधुत। पहले मैंने तय किया था तो मैं ही जाऊँगा, तुम पीछे हटो।” वेग उसे पीछे करके आगे बढ़ गया, विधुत विरोध नहीं कर सका।
सुरक्षित दूरी तक तो वेग शीघ्र ही आसानी से पहुँच गया परंतु
अब आगे डाली मजबूत नहीं थी, उसके सहारे इससे आगे नहीं जाया जा सकता
था और अभी भी वह पक्षी बहुत दूर था। परंतु उसके उपर वाली डाल अच्छी मजबूत और मोटी थी। वेग
ने अपना कमरबन्द निकाल लिया, शायद उसे कोई युक्ति सूझ गई थी अब तक। उसने
अपने कमर बन्द को उस उपर वाली डाल में लपेट कर परंतु ढीला सा
बाँध दिया। वेग के साथी उसकी इस युक्ति को समझने की चेष्टा कर रहे थे। इसके बाद
वेग ने अपन पूरा भार उपर वाली डाल पर लाद दिया और
वह उपर वाली डाल से झूल गया। इसी प्रकार वह आगे बढ़ने लगा और साथ में वह अपने कमर बंद को भी आगे सरकाते हुए
चल रहा था। कुछ देर के परिश्रम के बाद वेग अब पक्षी के बिल्कुल उपर
तक आ चुका था परंतु वेग के पाँव भी उस पक्षी को
नहीं छू पा रहे थे।
“ओह,
वेग नहीं पहुँच पा रहा है। कोई और उपाय सोचना होगा।” मेघ ने
कहा। “सोचो तुम सब भी।”
“ठहरो, मुझे लगता है अभी वेग ने हार नहीं मानी है।” सही
कहा था विधुत ने क्योंकि वेग के चेहरे पर अब भी निराशा नहीं थी, उसकी युक्ति अभी बाकी थी शायद।
“क्या करने का सोच रहा है यह?” मेघ ने प्रताप से
पूछा।
“नहीं जानता, परंतु कुछ तो करके मानेगा यह।”
अब वेग उलटा घूम गया, उसने अपने दोनों पाँव उस कमर बन्द में
फँसा लिए और उलटा होकर उस पक्षी पर झूल गया।
“हाँ यही तो, बिल्कुल सही सोचा वेग ने”
मेघ ने विजेता की भाँति उत्साहित सा होते हुए कहा।
“हाँ वेग, सही हो बिल्कुल।” विधुत नीचे से
चिल्ला कर वेग को प्रोत्साहित कर रहा था। “अब अपने आप को
झुलाने का प्रयास करो, तुम पहुँच सकते हो।”
“हाँ वेग, डाली को उपर नीचे हिलाने का प्रयास करो।” इस बार प्रताप बोला।
“क्या
तुम सब शांत रहोगे कुछ समय के लिए?” वेग ने लटके हुए चिल्ला कर उत्तर दिया। “मेरी
हालत देख रहे हो ना? मृत्यु के द्वार पर लटका हूँ वो भी उलटा। और तुम राह आसान
करने के उपाय सूझा रहे हो। तुम्हारे झूले के फेरे में अगर मेरा पाँव फिसल गया तो…”
उलटा लटक कर बोलने में और वो भी उँचे स्वर में, वेग को कठिनाई हो रही थी।
“मेघ…” वह चिल्लाया।
“हाँ बोलो वेग।” मेघ ने उत्तर दिया।
“मुझे तुम्हारा एक बाण चाहिए।”
“परंतु कैसे वेग?”
“सुनो ध्यान से, मैं अधिक नहीं बोल सकता और ना ही यहाँ लटका रह सकता हूँ। तुम मेरे सर से एक हाथ दूरी पर बाण चलाओगे, कम गति के साथ। बाण की गति जितनी कम होगी मेरे उसे लपकने की
संभावना उतनी ही अधिक होगी, समझ गये?” वेग चिल्लाया।
“ठीक है वेग, फिर अब तैयार हो जाओ।”
पक्षी
इस बीच घबरा के शांत हो चुका था। वह रुक-रुक कर कुछ आवाज कर रहा था परंतु धीमे से,
उसके साथी पक्षी असमंजस से वेग की गतिविधि को देख रहे थे, यह समझने का प्रयास करते
हुए कि वह शत्रु है या मित्र।
मेघ
ने धनुष पर बाण को चढ़ाया और निशाना साधने लगा। उसने बाण को धनुष से कुछ इस प्रकार
से छोड़ा कि पहले तो वह उँचाई पर गया परंतु गति के कम होने के कारण तुरंत धरती की
ओर वापस मुड़ गया और नीचे आते हुए वह वेग के सर के पास से होकर निकला जहाँ वेग ने
उसे आसानी से लपक लिया।
“शाबाश मेघ, कमाल का निशाना था तुम्हारा।” विधुत
ने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा।
वेग
ने बाण को पक्षी की ओर बढ़ा कर देखा, बाण की नोक उस पक्षी के पैरो में उलझे धागे
तक जा लगी थी। बाण के जैसे छूने भर की देर थी, पक्षी झट से मुक्त होकर हवा में उड़
गया। परंतु इस बीच वेग का ध्यान अपनी कंठ माला पर बिल्कुल नहीं गया था जो उसके गले
से बाहर लटक चुकी थी। उस परिंदे के मुक्त होने के साथ ही उसकी कंठ माला भी उसके
गले से अलग हो गई थी। अंतिम समय पर वेग को इसका आभास हुआ परंतु तब तक देर हो चुकी
थी। वेग ने अपना हाथ भी बढ़ाया था उसे थामने के लिए परंतु बस कुछ अंतराल से वह
उसके हाथ में आते-आते रह गई। उसकी कंठ माला उससे छूट गई थी। पक्षी पर पूरा ध्यान
होने के कारण वेग के बाकी साथी उसके गले से निकलकर गिरती हुई उसकी कंठ माला को
नहीं देख सके थे। बाल्यकाल से जिसे वेग ने संभाल कर रखा था वह अचानक उससे छूट के
सदा के लिए खोने जा रही थी। वेग की आँखों के एकदम सामने वो झरने के अथाह पानी में
अदृश्य हो गई। वेग की सफलता से सब के चेहरे खिल गये थे, वेग को भी उस पक्षी के
प्राण बचने से प्रसन्नता प्राप्त हुई थी परंतु साथ में उसकी कंठ माला खोने का अब
दुख भी था।
“शाबाश वेग, कमाल कर दिया तुमने।” विधुत ने कहा
परंतु वेग बिना उत्तर दिए वापस मुड़ गया था।
“मुझे पक्का विश्वास था वेग यह कर लेगा।” प्रताप
बोला।
“हाँ, दिख रहा था तुम्हारा विश्वास।” विधुत ने कहा।
“वह मेरी उसके लिए चिंता थी, इस का यह अर्थ नहीं
था कि मुझे उसकी बुद्धि पर संदेह था। क्या तुम लोगों को उसकी चिंता नहीं थी?” उसने वापस प्रश्न किया।
वेग सावधानी से वापस नीचे उतर गया और अपने साथियों की ओर
बढ़ा। उसके मुरझाए से चेहरे को सब ने तुरंत भाँप लिया था।
“क्या हुआ वेग, तुम खुश नहीं हो?” मेघ ने पूछा।
“मां की दी हुई कंठ माला मुझसे खो गई।” वेग ने
उदास होकर कहा।
“कब और कैसे?” प्रताप ने चौंक कर पूछा।
“अभी बस कुछ समय पहले, उस परिंदे के प्राणों की रक्षा करने में मैं
अपनी कंठमाला के लिए असावधान हो गया था। मुझे समझना चाहिए था
कि उस स्थिति में वह मेरे गले से आसानी से निकल सकती है परंतु... परंतु अब कुछ
नहीं हो सकता।”
“उदास मत हो वेग।”
“बालपन से उसे हृदय से लगा के रखा था इसलिए बस
दुख होता है प्रताप।”
“नहीं
जानता परंतु हो सकता है इसके पीछे भी कोई उचित कारण हो जो वह तुमसे खो गई।”
“उसके खोने में क्या उचित कारण हो सकता है
विधुत? मेरे अलावा तो शायद किसी और के लिए उसका कोई मोल
ही नहीं होगा।”
“मन छोटा मत करो मित्र, उस पक्षी के जीवन की रक्षा करके तो
तुमने पुण्य का काम किया है, तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए।” प्रताप ने कहा था। वेग अभी भी झरने के बहाव को देख रहा था।
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