तारकेन्दु के बाकी साथी अपने देश की और लौट रहे थे इस बात
से अंजान कि रास्ते
में उनकी मृत्यु उनकी राह देख रही है। शौर्य
इस बात से अंजान नहीं थे इसीलिए उन्होंने इनके लिए सहायता भेज दी थी परंतु कुछ ऐसा
भी था जिससे शौर्य अंजान थे।
अब तक अंधेरा हो चुका था और जंगल में सन्नाटा पाँव पसारने
लगा था, बहुत धीमी आहट भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। अपने नगर की ओर बढ़ते हुए सिपाहियों को कुछ आभास सा हुआ, किसी
साये का आभास, वो सभी एक दूसरे को देखने लगे। कोई साया उनके आस पास मंडरा रहा था, पेड़ो के पत्तों से उस साये के टकराने
की आवाजें और निकट आ रही थी। भय से सभी के चेहरों के रंग बदल रहे थे, ऐसी हालत में सभी ने
अपने शस्त्र बाहर निकालना
उचित समझा और सतर्कता से वहाँ से निकलने लगे कि तभी एक उड़ती हुई बला फुर्ती से पेड़ो के बीच में से निकली और उन पर झपट पड़ी। कोई कुछ समझ पता उससे पहले ही वह एक सिपाही को हवा में उड़ा के ले गई और
अपने पैने दाँत उसके गले में उतार दिए। सन्नाटे में उस
अभागे सिपाही की चीख गूंजने लगी और इस चीख ने पर्याप्त लंबा रास्ता तय किया जो कहीं दूर दुष्यंत के कानों तक जा पहुँची थी। दुष्यंत, जो अपनी ही धुन में आश्रम की ओर बढ़ा जा रहा था अंजान इसके कि आश्रम
में वहाँ कोई भी नहीं है। दुष्यंत ने तुरंत अपने अश्व
को मोड़ा और आवाज की दिशा में फुर्ती से बढ़ चला।
उधर अपने एक साथी की दर्दनाक चीख सुन कर बाकी के साथियों
में भी भगदड़ मच गई थी। भय से उनके हाथ कांप रहे थे
फिर भी जीने की चाह उन्हें उस अंजान मृत्यु से
मुकाबला करने को प्रेरित कर रही थी कि तभी उस बला के
मुंह से उनके साथी का शरीर धरती पर आ गिरा। उसकी हालत
ऐसी थी जिसे देखकर अच्छे-अच्छे हिम्मत वालों की
भी हिम्मत जवाब दे सकती थी। कुछ ही पलों में उस उड़ती हुई बला ने उसके शरीर को
चिथड़ों में बदल कर फेंक दिया था। मृत्यु को शायद उनकी राह देखना भारी लग रहा था
सो वह स्वयं उन तक पहुँच गयी थी। अब वहाँ रुकने की हिम्मत किसी में नहीं थी। बचने
की एक अंतिम आशा के सहारे सभी वहाँ से भागने लगे परंतु उस बला
की गति के आगे उनका यह प्रयास भी
व्यर्थ सा लग रहा था।
आवाज
का पीछा करते हुए दुष्यंत समीप आ गया था, तभी उसे कोई दिखाई दिया जो अंधाधुंध उसकी
ओर दौड़े आ रहा था। उसका पूरा ध्यान पीछे था, ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी से भयभीत
होकर भागे आ रहा था। दुष्यंत उसके
भयभीत होने का कारण जानने के लिए अश्व से उतरकर उसके रास्ते में खड़ा हो गया, परंतु उसकी रुकने की मंशा नहीं थी शायद।
“रुको भाई” उसकी मंशा को समझ कर दुष्यंत ने उसके
हाथ को पकड़ कर उसे रोकना चाहा।
“छोड़ दो मुझे, जाने दो।” वह अपने आप को उसकी पकड़ से छुड़वाने का प्रयास करते हुए बोला।
“शांत हो जाओ, मुझे बताओ कौन हो तुम और क्या हुआ
है तुम्हें?” दुष्यंत ने पूछा उससे।
“भागो यहाँ से, अपने प्राण बचाओ और मुझे भी जाने दो।” वह घबराते हुए बोला।
“किससे?” दुष्यंत ने उसके दोनों कंधों को पकड़
कर उसे हिलाते हुए कहा। “मुझे बताओ किससे डरकर भाग रहे हो
तुम? कोई भी तो नहीं है तुम्हारे पीछे।”
“वो... वो आ जाएगी, मुझे
जाने दो।” वह फिर गिड़गिड़ाया।
“कौन आ जाएगी? तुम बताओ मुझे,
तुम्हें कोई कुछ नहीं कर सकता।”
“तुम समझ क्यों नहीं रहे हो? वो चुड़ैल तुमको भी
खा जाएगी उसने मेरे सभी साथियों को मार दिया है।” वह
अपने आप को छुड़वाने का प्रयास करते हुए चिल्लाया। “तुम्हें अपने प्राणों की परवाह नहीं है परंतु मुझे है, मुझे
जाने दो।”
“कहाँ है वो चुड़ैल? बताओ मुझे।” दुष्यंत ने
अपनी पकड़ ढीली कर दी थी।
“उस
ओर, परंतु अगर मरना चाहते हो तो जाओ वहाँ।” उस व्यक्ति ने एक ओर इशारा करते हुए कहा । “वह बहुत भयानक है... रूपसी... रूपसी नाम है उसका, तुम्हें बचने
का अवसर तक नहीं मिलेगा।” यह कहते हुए वह भाग गया था।
“तुम कौन हो?” दुष्यंत ने उससे पूछना चाहा परंतु
वह तो बस भागे जा रहा था।
“अपने प्राण बचाओ, भाग जाओ।” वह जाते हुए भी कहे
जा रहा था।
दुष्यंत बिना क्षण गवाएँ उस दिशा की ओर फुर्ती से बढ़ गया जिधर उस व्यक्ति ने इशारा किया था।
पूरा जंगल उन सिपाहियों की चीखों से
गूंजने लगा था परंतु सहायता आने में अभी भी देर थी। इस
बार इन चीखों की आवाज विधुत और प्रताप के कानों तक भी पहुँच गई थी। एक क्षण का समय गवाएँ बिना उन्होंने भी
अपने अश्व उस ओर दौड़ा दिए थे। दुष्यंत भी पूरी तीव्रता से उसी दिशा में जा रहा था परंतु उन अभागों के पास बहुत कम समय था।
एक-एक करके सभी का एक जैसा हाल होते जा रहा था, धरती
पर क्षत विक्षित शवों का अंबार सा हो गया था वहाँ, रक्त से आस-पास के वृक्ष तक भी
लाल हो गये थे। अब बस एक अंतिम सिपाही बचा था जो घावों से अटा पड़ा
था, इसके बावजूद भी वह अपने जीवन के लिए भाग रहा था। मृत्यु उससे अब बस कुछ
ही कदमों की दूरी पर थी परंतु उस सिपाही को झपटने से पहले
अचानक दुष्यंत ने उस मृत्यु को हवा में लपक लिया। अचानक हुए इस हमले से वह बला धराशायी होकर धरती पर आ गिरी परंतु दुष्यंत
ने उसे अभी तक भी अपने बाजुओं में जकड़े रखा था। वह
गुर्रा रही थी और दुष्यंत की भुजाओं से निकलने के लिए छटपटा रही थी।
वह एक चुड़ैल थी जो पूरी तरह रक्त से सनी
हुई थी। दुष्यंत को उसे काबू में रखने के लिए बहुत शक्ति लगानी पड़ रही थी और वह
चुड़ैल भी उसकी पकड़ से निकलने के लिए लगातार प्रयास कर रही थी। उसने उसी स्थिति
में उड़ना चाहा परंतु दुष्यंत ने उसका एक पंख पकड़ कर उसे फिर नीचे गिरा दिया
परंतु इस प्रयास में उसकी पकड़ थोड़ी कमजोर हो गई जिसका लाभ उस चुड़ैल ने उठा लिया
और वह दुष्यंत की पकड़ से मुक्त होकर हवा में उड़ गयी। परंतु भागने के लिए नहीं,
वह फिर पलटी और पूरी गति के साथ दुष्यंत पर झपट पड़ी। दुष्यंत ने अपनी तलवार निकाल ली थी परंतु उसे वार करने का अवसर ही
नहीं मिला और उसकी टक्कर से वह उछल कर दूर जा गिरा। उसके हाथ से उसकी तलवार भी दूर
जा गिरी थी।
“तूने मेरे रास्ते में आकर अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की है। तेरी
मृत्यु को मैं इतना कष्टदायी बना दूंगी कि तू दुबारा जन्म लेने से पहले भी सैकड़ों
बार सोचेगा।” कर्कश स्वर में उस चुड़ैल ने कहा।
वह धरती पर आ खड़ी हुई थी, दुष्यंत
से कुछ कदमों के अंतराल पर। दुष्यंत भी खड़ा हो गया था
और अब उसकी दृष्टि उस नरसंहार पर पड़ी जो इस चुड़ैल ने किया था।
“निर्दयता
की सारी सीमाएँ लाँघ दी हैं तूने दुष्ट।” दुष्यंत का कलेजा उन शवों को देख कर तड़प
उठा था। “क्या बिगाड़ा था इन सब ने तेरा जो तूने इन्हे… इस प्रकार…”
“हा
हा हा…” वह चुड़ैल हँसने लगी। “तू यह जानना चाहता है कि क्या बिगाड़ा इन्होने
मेरा? ठहर, तू अभी इनके पास ही तो जाने वाला है, पूछ लेना इन्ही से।
उसकी
बातें दुष्यंत के क्रोध को और अधिक भड़का रही थी। “तुझे जीवित रहने का कोई अधिकार
नहीं है, इस अपराध का दंड तुझे भुगतना ही होगा।”
यह कहकर दुष्यंत उसकी ओर उछला परंतु उस चुड़ैल ने फुर्ती से
उड़ कर अपने आपको बचा लिया और साथ ही उसे अपने मजबूत पंजों से पकड़ कर हवा में
उछाल दिया। दुष्यंत पेड़ो से टकरा कर धरती पर गिरा ही था कि उस चुड़ैल ने फिर से उसे
हवा में उठा लिया और पत्थरों की ओर उछाल दिया। इस टक्कर
से दुष्यंत का सर घूम गया और साथ ही उसका क्रोध भी भड़क गया था। दुष्यंत अपने आप को संभालने के लिए घुटनों के बल बैठ गया था कि तभी वह फिर से उसके समीप आ गई। जैसे ही चुड़ैल ने उसे पीछे
से पकड़ कर उठना चाहा, एक दम अंतिम समय पर दुष्यंत ने मुड़ कर उसके दोनों पंजों को
मजबूती से पकड़ लिया। उस चुड़ैल ने उसे धरती पर पटकने का पूरा प्रयास किया परंतु
दुष्यंत उसके बिना धरती पर उतरने को तैयार नहीं था, वह हवा में ही उससे उलझ गया।
इससे पहले दुष्यंत का कभी किसी चुड़ैल से सामना नहीं हुआ था और यह कितना कठिन है,
दुष्यंत को अब समझ आ रहा था। परंतु बावजूद इसके दुष्यंत को हार ना मानते हुए देख
वह चुड़ैल दुष्यंत को थोड़े उँचाई तक ले गई और उसे कुछ इस प्रकार से उठाया जैसे
कोई बाज उड़ते हुए अपने शिकार को अपने मुंह तक ले जाता है। उसने
दुष्यंत के सर को अपने हाथों में पकड़ लिया और उसकी गर्दन को काटने के लिए अपना
मुंह आगे बढ़ाया, परंतु इसी क्षण दुष्यंत के एक शक्तिशाली मुक्के ने उसके मस्तिष्क को झनझना दिया। अवसर
का लाभ उठा के दुष्यंत ने एक हाथ उसकी गर्दन पर कस दिया और दूसरे हाथ से उसके पंख
को जकड़ लिया।
“बहुत उड़ चुकी तुम हवा में, अब नीचे चलें?” उसके
साथ नीचे गिरते हुए दुष्यंत ने कहा।
गर्दन पर शक्तिशाली दबाव से उस
चुड़ैल का दम घुटने लगा था, उसने अपने दोनों हाथों से दुष्यंत के उस हाथ को पकड़
लिया जिसमें दुष्यंत ने उसकी गर्दन को दबोच रखा था परंतु उसकी पकड़ से निकलने में
वह सफल नहीं हो पा रही थी। नीचे गिरते हुए उसने दुष्यंत
के सीने पर अपने पंजों को जमा दिया और पूरी शक्ति से उसे अपने से दूर धकेलने लगी। दुष्यंत उसको छोड़ता
अगर उसके पैरो के नुकीले पंजे दुष्यंत के सीने को आहत ना
कर रहे होते। दुष्यंत को विवश होकर उसे छोड़ना पड़ा। नीचे गिरते-गिरते दोनों एक दूसरे से अलग हो गये थे और विपरीत दिशाओं में जा गिरे थे।
दुष्यंत घायल हुआ था तो वह चुड़ैल
भी हाँफ रही थी, लड़खड़ाती हुई सी वह खड़ी हुई और अपने
आप को संभालते हुए दुष्यंत को क्रोध से देखने लगी।
“तू पहला मनुष्य है जो मेरे सामने इतनी देर तक जीवित रह पाया है।
तुझमें बल तो है परंतु मुझे खेद है, तुझे मरना तो होगा। क्योंकि तेरा सीना चिरने में अब मुझे बहुत आनंद आएगा।”
राक्षशी हँसी के साथ उसने कहा। “परंतु तूने मुझे इतना प्रभावित तो किया है कि मैं
तेरा नाम तो अवश्य जानना चाहूँगी।”
“दुष्यंत,” दुष्यंत ने खड़े होते हुए कहा।
“मेरा नाम दुष्यंत है परंतु मैं यह तुझे इसलिए बता रहा हूँ
ताकि तू अगले जन्म में दुबारा मुझसे टकराने की भूल ना कर सके।”
“ओह…
तो तुम दुष्यंत हो, महान शौर्य के शिष्य।” वह चुड़ैल बोली। “शौर्य ने बहुत परिश्रम
किया है तुम पर।”
एक दूसरे का सामना करने के लिए दोनों फिर से तैयार थे परंतु
थोड़ी दूर पर अश्वों की टापों की आवाज से दोनों
थोड़ा चौंक से गये। दोनों को अनुमान नहीं था कि आने वाला कौन है? चुड़ैल ने एक क्षण के लिए कुछ सोचा और
दुष्यंत की ओर देखा, फिर उस सैनिक की ओर जो अभी भी घबराया सा हुआ वहाँ खड़ा था। दुष्यंत
के रूप में एक रक्षक के पहुँचने से उसने फिर शायद भागना उचित
नहीं समझा। शायद वह अपनी
सुरक्षा के लिए दुष्यंत के पास ही रहना चाहता था।
दुष्यंत को उसकी मंशा समझते देर
नहीं लगी, वह फुर्ती से उस सिपाही की
ओर भागा परंतु चुड़ैल के उड़ने की गति के आगे वह
हार गया और उस अंतिम सिपाही को भी उसने अपने पंजों में उठा लिया। सिपाही उसकी पकड़
में छटपटाने लगा। मृत्यु के सिकंजे में फिर से जा फँसा वह सिपाही बचने की अंतिम
आशा लिए दुष्यंत को देख रहा था, परंतु दुष्यंत भी यहाँ लाचार
था क्योंकि वह उसकी पहुँच से बाहर हो चुका था।
“दुर्बल
पर अपनी शक्ति का दिखावा मत कर कायर, कायर चुड़ैल है तू मेरी दृष्टि में, साहस है
तो वापस आ और मेरा सामना कर।” दुष्यंत ने उसे चुनौती देकर उत्तेजित करने का प्रयास
किया।
“तुझसे
सामना करने को तो मैं भी मरी जा रही हूँ परंतु अभी समय ठीक नहीं है दुष्यंत।” दुष्यंत को लगा जैसे वह उसे चिढ़ा
रही थी। “परंतु किसी दिन तेरी यह इच्छा पूरी करने मैं अवश्य आऊँगी... हा हा
हा, मेरी प्रतीक्षा करना।” और यह कहकर वह आकाश में उड़ गई।
दुष्यंत लाचारी और क्रोध से उपर की ओर देख
रहा था, वह अपने आप को पराजित सा महसूस कर रहा था। इसी क्षण विधुत और प्रताप भी वहाँ पहुँच जाते हैं। चारों ओर
रक्त एवं मानव शरीर के टुकड़े देखकर दोनों की आत्मा थर्रा उठती
है।
“हे ईश्वर, यह तांडव किसने किया है?” विधुत ने
दुख व्यक्त किया।
“दुष्यंत! तुम यहाँ!” प्रताप ने दुष्यंत को देखकर हैरानी से पूछा। “तुम यहाँ कैसे पहुँच गये और ये सब किसने किया है?”
दुष्यंत अभी भी क्रोध से आकाश की ओर देख रहा था कि
तभी अचानक
उस सिपाही का सर कटा शव तीनों के बीच में आकर गिरा और साथ में वातावरण में किसी
स्त्री के अट्टहास का स्वर गूंजने लगा जो एक क्षण में दूर चला गया।
“गुरु
शौर्य ने सही कहा था, हमने देर कर दी आने में।” विधुत ने प्रताप की ओर देखते हुए
कहा और इस बात का दुख उसके चेहरे पर भी दिखाई दे रहा था। “परंतु यह बला थी क्या?”
“वो
एक चुड़ैल थी।” दुष्यंत ने कहा।
“चुड़ैल?”
प्रताप ने चौंक कर कहा। “यहाँ भी फिर से चुड़ैल! यह सब हो क्या रहा है?”
“क्या
अर्थ है तुम्हारा?” दुष्यंत ने पूछा। “किस सब
के बारे में बात कर रहे हो तुम?”
“मैं बताता हूँ तुम्हें।” फिर विधुत ने
उसे सारी घटना कह सुनाई।
“अब यह समझ में नहीं आ रहा कि एक चुड़ैल ने इनको क्यों मारा?” प्रताप ने सोचकर कहा।
“स्पष्ट सी बात है अपना प्रतिशोध लेने के
लिए।” दुष्यंत ने कहा। “वेग ने
जिस चुड़ैल के प्राण बचाए थे उसका नाम क्या था?”
“उसका नाम कुछ…” विधुत स्मरण करने का
प्रयत्न करने लगा।
“रूपसी?” दुष्यंत ने पूछा।
“हाँ शायद यही था। परंतु क्यों?” प्रताप ने
पूछा।
“यह रूपसी ही थी और इसने अपना प्रतिशोध लेने
के लिए इन सब की हत्या की है।” दुष्यंत को तभी जैसे कुछ स्मरण हुआ। “वह
सिपाही… वह शायद अभी भी जीवित हो...”
“कौन
सिपाही?” प्रताप ने पूछा।
दुष्यंत फुर्ती से
उसी रास्ते की ओर जाने लगा जहाँ से वह आया था। “चलो मेरे साथ जल्दी, बताता हूँ।”
प्रताप और विधुत भी उसके पीछे फुर्ती से दौड़ चले।
*
संकट वेग के आस पास भी मंडरा रहा था। चार
अश्वों के रथ के साथ सूर्यनगरी की ओर बढ़ते हुए वेग को भी आभास सा होने लगा जैसे
उसके आस पास कोई है या शायद कई और भी हैं, वेग सचेत हो
गया। रास्ता अभी बहुत लंबा था और तारकेन्दु की सुरक्षा
की दृष्टि से यहाँ किसी से उलझाना मूर्खता होती सो वेग को वहाँ से शीघ्र निकलने में बुद्धिमत्ता लगी। उसने अश्वों की गति को बढ़ा दिया, उसकी दृष्टि बिल्कुल चौकस
थी, चारों दिशाओं में बराबर दृष्टि रखते हुए वेग आगे की ओर बढ़ता जा रहा था।
अंजान शत्रु शायद अवसर की तलाश में वेग से कुछ दूरी बना कर
उसका पीछा कर रहे थे और यह बात तब वेग को भी समझ में आ चुकी थी कि वह चारों दिशाओं से शत्रुओं से घिरा है। परंतु वो अभी तक हमला क्यों नहीं कर रहे और उनकी क्या चाल है? यह
उसे समझ नहीं आ रहा था। परन्तु इसके बावजूद भी वेग
के चेहरे पर घबराहट का कोई निशान नहीं था।
रास्ते के उपर पेड़ो की शाखाओं में
छुपे बैठे दो नकाबपोश रथ के नीचे से निकलते ही उस
पर कूद गये और वेग के कुछ करने से पहले ही रथ के दोनों ओर झूल कर रथ के दरवाजे
खोलने का प्रयास करने लगे। परंतु रथ के दोनों ओर के
दरवाजे बेड़ियों से बँधे थे और उन पर मजबूत ताले
लगाए हुए थे। तभी दाएँ ओर वाले नकाबपोश के गले में
चाबुक आ फँसा जिसे वेग ने थाम रखा था। वेग के हाथ
के एक शक्तिशाली झटके से नकाबपोश रथ से दूर जा गिरा परंतु दूसरा अभी
भी अपने प्रयास में लगा था। वेग ने सारथी के स्थान पर बने रहते ही ही उस पर चाबुक से वार करना चालू कर दिया क्योंकि लगाम को छोड़ने का
अर्थ था अश्वों पर से नियंत्रण को खोना और वेग यह जोखिम अभी की
स्थिति में उठाना नहीं चाहता था।
दूसरा नकाबपोश चाबुक के वारो को आराम से सहे जा रहा था,
इससे स्पष्ट था कि वो कोई साधारण लोग
नहीं थे। इसी क्षण तीन-चार नकाबपोश घुड़सवार रास्ते के दोनों ओर से
निकलकर रथ का पीछा करने लगे।
उनके रथ तक पहुँचने का अर्थ था सीधे-सीधे खुली लड़ाई।
तभी वेग को सामने कुछ दूरी पर पेड़ की एक मजबूत शाख दिखाई दी जो लगभग रास्ते से सटी हुई थी, वेग
ने रथ को रास्ते के बायीं ओर कर लिया और संतुलित
होकर रथ को एक सही कोण पर चलाने लगा। गति अभी भी अधिक थी, वह
नकाबपोश वेग की चाल से अंजान अभी भी दरवाजे पर लगे ताले को खोलने का प्रयास कर रहा
था कि अचानक वह मोटी सी शाख उसकी छाती से आ टकराई। वह शाख में ही झूल कर रह गया और रथ आगे
निकल गया।
पीछा करने वाले घुड़सवार भी समीप पहुँच चुके थे। रथ के दोनों ओर दो-दो
नकाबपोशों ने स्थान ले लिए और तलवारों से ताले को तोड़ने के लिए प्रयास करने लगे।
परंतु वेग रथ को दाएँ–बाएँ घुमाकर उनका प्रयास व्यर्थ कर दे रहा था। यह युक्ति
अधिक देर तक काम नहीं कर सकती थी वो भी तब जब दोनों दिशाओं से और भी घुड़सवार निकल
के रथ के चारों ओर दौड़ने लगे हों। वेग शत्रुओं के बीच घिर चुका था, उसने धनुष
निकाल कर जंगल से बाहर निकलते हुए नकाबपोशों को निशाना बनाना
प्रारम्भ कर दिया। निशाना अचूक था परन्तु शत्रु
भी फुर्तीले और चुस्त थे, उसके तीरों को अपनी ढाल
से आसानी से रोक पा रहे थे। दस में से एक या दो तीर ही
सफल हो पा रहे थे। रथ के साथ दौड़ते हुए नकाबपोश भी रथ
का दरवाजा खोलने में सफल नहीं हो पा रहे थे, अंततः झुँझलाकर उनमें से एक ने बाकी
के नकाबपोशों को संकेतों में कुछ समझाया तो सभी
ने, जिनके हाथों में मशालें जल रही थी आगे बढ़े और रथ में आग लगा दी। चारों
ओर से एकसाथ लगी आग जल्द ही बढ़ने लगी और अगर कुछ नहीं किया
जाता तो जल्द ही यह अनियंत्रित भी होने वाली थी। वेग को आग को रोकने का कोई रास्ता
दिखाई नहीं दे रहा था। शत्रु कुछ निश्चिंत हो गये और बस
रथ के साथ तारकेन्दु को समाप्त होता हुआ देख कर तसल्ली करने के लिए थोड़ा अंतराल
रख कर वेग का पीछा करने लगे। उनको स्पष्ट दिखाई दे रहा
था कि वेग उस आग को काबू करने में सक्षम नहीं है।
वेग को अब आगे रास्ते में एक और रुकावट दिखाई देने लगी थी, रास्ते
को पूरी तरह से रोकता हुआ एक पेड़ का एक मोटा सा तना उससे अब कुछ ही दूरी पर था।
रथ के साथ उसे पार कर पाना असंभव था, संभवत: यह शत्रुओं की वेग को रोकने की अंतिम चाल थी। अगर वो अब तक सफल ना
हो पाते तो वेग को यहाँ घेरना आसान होता। अब जब नकाबपोश अपनी
जीत के लिए निश्चिंत थे तो वो व्यर्थ ही में वेग से उलझ कर अपने प्राणों को
जोखिम में नहीं डालना चाहते थे इसीलिए सभी ने वेग से कुछ अधिक दूरी बना ली जहाँ से
वो यह नहीं देख पा रहे थे कि वेग बचाव के लिए क्या कर
रहा है? वह यथाशीघ्र अश्वों को रथ से अलग करने का
प्रयास करने लगा। रथ उस विशाल तने के बहुत निकट पहुँच चुका था और अश्वों की गति अभी भी इतनी थी कि अगर
उनको इस समय रोकने का प्रयास भी किया जाता तो भी सामने के अवरोध से टकराना निश्चित था। सभी हतप्रभ से वेग की इस हठ को देख रहे क्योंकि वह अभी तक रथ के साथ था और रथ लगभग पूरी तरह से आग से
घिर चुका था। ऐसी स्थिति में कोई भी रथ से कूद कर अपने
प्राणों की चिंता करेगा परंतु वेग तो जैसे उस तने को टक्कर मारने का मन बना चुका
था।
एकदम अंतिम समय पर वेग ने सभी अश्वों को रथ से अलग कर दिया, अपने स्वाभाविक व्यवहार से चारों अश्वों ने उस तने के उपर से छलाँग लगा दी। उनमें से एक के उपर वेग था और दूसरे की लगाम उसके हाथ में थी, बाकी के दोनों अश्व पूरी तरह से मुक्त थे। अश्वों
के पैर दूसरी ओर भूमि पर लगे ही थे कि भारी भरकम
रथ पूरी गति के साथ उस तने से आ
टकराया। रथ के परखच्चे उड़ गये और आग ने पूरे रास्ते के साथ- साथ
तने पर भी कब्जा कर लिया। वेग को दूसरी ओर कूदते हुए नकाबपोशों
ने देख लिया था परंतु उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि बग्घी को बचाने के स्थान
पर वेग अपने प्राण बचा के क्यों भाग रहा है? उन्होंने एक
दूसरे की ओर देखा और टूटे हुए रथ की ओर दौड़ चले। पास पहुँचते ही सभी
अश्वों से नीचे उतर कर वहाँ तारकेन्दु का शव तलाशने लगे।
रथ
पूरी तरह बिखर चुका था। इतनी आग के बीच में तारकेन्दु का जीवित रहना तो असंभव था
परंतु उसके शव का वहाँ होना भी तय था। खोजने के बाद भी उन्हें
तारकेन्दु तो क्या उसके कपड़े तक का टुकड़ा दिखाई नहीं दिया। अब तक सब को समझ आ
चुका था कि यह रथ केवल उनको मूर्ख बनाने का साधन मात्र था। सब एक दूसरे का मुंह ताकने लगे
और फिर आग को देखने लगे जो उनके रास्ते को रोक के खड़ी थी। पीछे
अपना सिर पकड़ कर लाचार से खड़े नकाबपोशों को छोड़ कर वेग आगे निकल चुका था। दो
अश्वों ने अपना रास्ता स्वयं पकड़ लिया था और एक अश्व की लगाम वेग के हाथ में थी
जो अब वेग के साथ सूर्यनगरी की ओर बढ़ रहा था।
“कैसी रही सवारी?” वेग ने दूसरे अश्व के उपर से
कपड़े को हटाया और उस पर पेट के बल बँधे तारकेन्दु से पूछा।
“इससे
अच्छा तो तुम मुझे मर ही जाने देते। हाय... मेरा पेट” वह दर्द से तिलमिला रहा था।
“अभी लौट के चलें?” वेग ने टांग खींचते हुए कहा।
“एक बार तुम्हारा बयान सब के सामने हो जाएगा तो स्वयं से चले जाना
मरने के लिए... अपने ही इन मित्रों के पास… ।” वेग ने अंतिम शब्द थोड़ा रुक कर कहे थे।
“मुझे मरना नहीं है... मुझे बचा लो वेग।” उसका
स्वर तुरंत बदल गया, वह अश्व पर टँगे-टँगे ही गिड़गिड़ाने लगा।
“अभी यही तो किया था परंतु तुम्हें अच्छा नहीं लगा।” वेग ने हंस कर कहा। “पहले तुम यह तय कर लो कि
तुम जीवित रहना चाहते हो या मरना।”
उसे भी मालूम था कि अब उसके जीवन की डोर केवल ऊपरवाले के
हाथों में हैं इसलिए वह चुप हो गया और आँख बंद कर के फिर से झूल गया।
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