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अध्याय 16 - महारथी विराट - भाग 1

युगान्धर-भूमि ग्रहण की दस्तक महारथी विराट 1/5 “ प्रणाम महारथी विराट ।”  वेग ने कक्ष में प्रवेश करते के साथ ही कहा तो विर...

अध्याय 1 - अंतिम पहर

युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक



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This book or any portion thereof may not be reproduced or used in any manner whatsoever without permission except for the use of brief quotations in a book review. This book is a work of fiction. The characters and events portrayed in this book are fictitious. Any similarity to real persons, living or dead is coincidental and not intentional by the authors.



युगांधर-भूमि


अनंत तक फैले इस ब्रह्मांड के किसी हिस्से में एक गृह है पृथ्वी। करोड़ो वर्षों के विकासक्रम के बाद, समय के इस काल में जो जीवन के अनुकूल हो सकी। जहाँ जीवों की लाखों प्रजातियाँ को सदियों से शरण मिली है। सदियों से यहाँ सूक्ष्म और विशाल दोनों रूपों में जीवन का आगमन और प्रस्थान जारी है। सबके गुण अलग, प्रकर्ती अलग और क्षमताएँ भी अलग। किंतु जो है या जो नहीं है, उसे जानने की क्षमता यहाँ केवल मानव में है। गणना, तुलना, विश्लेषण और परिणामों का आंकलन करने की क्षमता के साथ मानव जाती में बहुत से ऐसे गुण हुए जो अन्य जीवों में नहीं हैं। बावजूद इसके पृथ्वी पर महत्वहीन कोई नहीं सबका विशेष महत्व है। यह एक कथा भी मानव द्वारा लिखी जा रही और इसे पढ़ने की क्षमता भी मानव में ही है। इन विशेष क्षमताओं के साथ मानव जाती को विशेष दायित्व भी मिला जिसे पिछले कालखण्डो में मानव ने कभी तो अच्छे से निभाया और कई बार वह असफल भी रहा। जब कभी श्रेस्ठ होने के अभिमान ने मानव की बुद्धि को दूषित किया वहाँ क्रोध, ईर्ष्या और स्वार्थ ने अपना वर्चस्व स्थापित किया तो मानवजाति ने इसके गंभीर परिणाम भी भुगते। संकट बहुत आए लेकिन हरबार संकटकाल से मानवजाति बाहर आ सकी इसका प्रमाण स्वयं पाठक है जो यह कथा पढ़ रहा है।
लेकिन क्या यह इतना सरल था?
संसार के लगभग सभी भागों में भिन्न भिन्न समयकाल की अनेकों गाथाएँ व लोककथाएँ हैं, जिनमें कुछ महामानवों की चर्चा अवश्य है। जिनके कठिन और अथक प्रयासों के कारण ही इस धरती पर मानवजाती का अस्तीव आज तक है। कभी इन्हें रक्षक कहा गया तो कभी संहारक, कहीं इन्हे देवताओं की सन्ज्ञा दी गई है तो कहीं इन्हे ईश्वरीय अवतार माना गया है। यह बस कुछ नाम हैं उन नामों में से जो उन्हें अलग-अलग युगों में मिलते रहे हैं। मानव जाति के विशाल परंतु भूले और बिखरे से इतिहास में कुछ महामानवों को ही केवल उचित स्थान मिला लेकिन अधिकांश तो समय के चोट खाकर इतिहास के पन्नो के साथ ही विलुप्त हो गये। कुछ पुराने पन्नो को जोड़कर लिखी गई यह गाथा भी इन्हीं महामानवो की है जिन्होने हमारे अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने प्राणों की तो कभी अंश मात्र भी परवाह नहीं की। धरती पर जीवन को सींचते रहना ही जिनका परम स्वार्थ रहा। अपने क्रतव्य मार्ग पर कितने ही महामानव मृत्यु को भेंट चढ़ गये परंतु संसार इनके बलिदान को प्रायः भूल जाता है।
“युगांधर,” इनके लिए सार्थक नाम इसलिए है क्योंकि ये महामानव युगों की धुरी थे। एक युग को विनाश के जबड़ों से निकाल कर लाने वाले ये युगंधार इसी भूमि पर जन्मे और आज के हमारे वर्तमान को इन्होने तब अपने त्याग, बलिदान और समर्पण से सिंचा था। जहाँ आज बसते हैं हम यही वो भूमि है "युगंधार भूमि"

अध्याय 1 - अंतिम पहर



आबादी से बहुत दूर और घने जंगलों के पार हरे-हरे मैदानों से कुछ उँचाई पर एक आश्रम। तापी नदी के उद्गम के पास होने से इसको तापिश्रम भी कहा जाता है। जहाँ गुरु शौर्य अपने कुछ शिष्यों को कई वर्षों से शिक्षा दे रहें है। मेघ, विधुत, प्रताप, दुष्यंत और वेग इनके पाँच शिष्य हैं । परन्तु ये कोई साधारण शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु शौर्य के पास नहीं हैं, इन सभी ने अपना जीवन एक विशेष उद्देश्य को समर्पित किया है। आने वाले समय में शौर्य के इन्ही पाँच शिष्यों को मानव जाती के मध्य एक समन्वयक की भूमिका प्रदान करनी है। वर्तमान में स्वयं गुरु शौर्य पाँच समन्वयक में से एक हैं। और उसी समन्वयक परंपरा की अगली पीढ़ी को इस आश्रम में तैयार किया जा रहा है। समन्वयक होना एक असाधारण दायित्व है, इसलिए प्रथम तो उपयुक्त शिष्य का चुनाव ही बहुत महत्वपूर्ण है। उसके बाद बालकपन से ही विशेष शारीरिक अभ्यासों और कठिन समर्पित साधनाओं द्वारा मानव शरीर की उन क्षमताओं को विकसित किया जाता है जिनके विषय में साधारणतः सोचा भी नहीं जा सकता।
शिक्षा पूरी होने तक इन पाँचों की दुनिया यहीं तक सीमित रही है। बाहरी दुनिया से यहाँ का संपर्क बहुत ही कम रहा है परंतु शिक्षा के इस चरण में गुरु शौर्य अब इनको बाहर की दुनिया के संपर्क में भी प्रायः ले जाते हैं। यह भी इनकी शिक्षा का एक भाग है। एक उत्तम समन्वयक होने के लिए बलवान, उर्जावान और बुद्धिवान होना ही पर्याप्त नहीं है, उनका सामाजिक होना भी उतना ही आवश्यक है। भविष्य में क्योंकि इनको समाज में उपस्थित रहते हुए ही अपने कर्तव्य का पालन करना है। शौर्य के कुछ विशेष सूत्रों ने इस कठिन शिक्षा को भी आनंदमय बना दिया था जिस कारण इनके शिष्यों को यह शिक्षा कभी भी भारी नहीं जान पड़ी।  यहाँ अच्छाई के लिए पाँच नये स्तंभ तैयार हो चुके थे तो वहीं दूसरी ओर बुराई भी अपने लिए रास्ते खोज रही थी।
*
आश्रम से बहुत दूर उदीष्ठा की राजधानी सूर्यनगरी, रात के इस पहर में लगभग सोई हुई थी परन्तु उसकी सीमा पर अभी भी कुछ गतिविधि थी जो गश्ती सिपाहियों की नहीं लग रही थी। रात के अंधेरे में नगर से थोड़ा बाहर वह व्यक्ति बहुत ही व्याकुल हो किसी की प्रतीक्षा कर रहा था। सन्नाटे में कुछ झींगुरों का शोर केवल गूँज रहा था, रोशनी अधिक नहीं थी फिर भी तारो की झिलमिलाहट में उस व्यक्ति के काले आवरण के भीतर से राजसी वेशभूषा दिखाई दे रही थी जिससे यह तो स्पष्ट था कि उसका यहाँ अकेले खड़े होना कुछ असामान्य था। दाढ़ी मूछ आधी से कुछ अधिक सफेद, पचास से पचपन वर्ष की आयु, उसकी आँखें किसी को ढूँढ रही थी। साथ ही साथ वह अपने चारों और देख कर इस बात की तसल्ली भी कर रहा था कि कोई उसे देख ना रहा हो। उसके चेहरे पर झल्लाहट बढ़ती जा रही थी कि तभी उसे कुछ दूरी पर एक परछाई अपने समीप आती हुई दिखाई दी। उसने अपने आप को एक वृक्ष की ओट में कर लिया और उस परछाई को छुपकर पहचानने का प्रयत्न करने लगा। काले वस्त्र ओढ़े हुए वह आगंतुक अब बहुत निकट आ चुका था। सामान्य से कुछ अधिक कद, भारी लेकिन गठीली काया, यह वही था जिस की प्रतीक्षा वह राजसी वेशभूषा वाला व्यक्ति कर रहा था। थोड़ा क्रोधित होकर वह उसके सामने आ गया।
“क्या तुम्हें तनिक भी अहसास है कि मेरा यहाँ इस समय आना कितना हानिकारक हो सकता है? मेरे लिए, तुम्हारे लिए और साथ में तुम्हारे उद्देश्य के लिए भी।”राजसी वेशभूषा वाला वह व्यक्ति क्रोधित हो रहा था। “तुम्हें शायद अपनी चिंता नहीं है परन्तु मुझे अपने लिए इस प्रकार के जोखिम उठाने का थोड़ा भी चाव नहीं है ।”
“अभी इस प्रकार चिल्ला कर क्या तुम अपने लिए संकट नहीं बुला रहे हो अग्निवेश? शांत हो जाओ, अकारण मुझे भी जोखिम से खेलना पसंद नहीं है।”उस आने वाले व्यक्ति की बात से अग्निवेश को अहसास हुआ कि वास्तव में उसका स्वर क्रोध के कारण ऊँचा हो गया था, वह थोड़ा झेंप सा गया।
“तुम्हारे लिए जो मैं कर सकता था वह मैंने कर दिया है भुजंग, आगे का काम अब तुम संभालो। इस प्रकार बार-बार मिलने के लिए बुलाकर क्यों जोखिम को निमंत्रण दे रहे हो?” अग्निवेश आने वाले व्यक्ति पर क्रोधित हो रहा था।
“तुम्हारा काम अभी अधूरा है अग्निवेश,” उस व्यक्ति को भी अग्निवेश की बात पर थोड़ा क्रोध आ गया था। “किस उद्देश्य की बात कर रहे थे तुम अभी, क्या इसमें तुम्हारा स्वार्थ नहीं? यह मत भूलो कि तुम मेरे या किसी और के लिए यह संकट मोल नहीं ले रहे हो। अगर तुम्हें कुछ प्राप्त करना है तो थोड़ा तो जोखिम तुम्हें भी उठाना होगा।”
“परन्तु क्यों भुजंग? अब जब मैंने वहाँ तुम्हारे प्रवेश की स्थाई व्यवस्था कर दी है, तुम वहाँ निश्चिंत होकर आ जा सकते हो, उसके बाद तुम्हें अब मुझसे क्या चाहिए? किस बात की प्रतीक्षा है अब तुम्हें? जैसा कि तुमने कहा था एक बार वहाँ प्रवेश मिलने के बाद "भीषण" को मुक्त तुम स्वयं करवा लोगे। मेरा काम हुआ फिर व्यर्थ ही मुझे बार-बार संकट में क्यों डाल रहे हो?” अग्निवेश अभी भी नाराजगी से पूछ रहा था।
“तुम्हारा काम अभी समाप्त नहीं हुआ है। उस बंदीगृह के अंदर के सुरक्षा घेरे को तो मैं तोड़ सकता हूँ परन्तु वह तिलिस्म जिसके अंदर मेरे स्वामी को बंदी बना कर डाला गया है, उसका तोड़ क्या है?” भुजंग भी आवेश में आ गया था, वह अग्निवेश के समीप आने लगा। “तुमने मुझे ऐसा कुछ पहले क्यों नहीं बताया?”
“ओ...ओ... देखो भुजंग, ऐसा तो हमारे अनुबंध में कहीं तय नहीं हुआ था।” अग्निवेश पीछे हटते हुए बोला।” मेरा काम केवल तुम्हें रास्ता दिखाने का था, रही बात वह तिलिस्म तो मुझे लगा यह तुम्हारे लिए कोई जटिल विषय नहीं होगा।”
“कोई बच्चों का खिलौना नहीं है जिसे चुटकी मे तोड़ दिया जाए, वह एक तिलिस्म है।” भुजंग ने आगे बढ़कर अग्निवेश को गले से पकड़ लिया था। “बिना उस तिलिष्म को जाने हमला करने का अर्थ है सीधे मृत्यु को गले लगाना, मुझे तुम उस तिलिस्म का रहस्य बताओ।”
“देखो मेरी बात सुनो, मैं कुछ नहीं जानता इस बारे में।” अब अग्निवेश का सुर मंदा पद चुका था। “मैं सच कह रहा हूँ मुझे भी बस इतना मालूम है कि भीषण किसी काले जादू या शायद तिलिस्मी घेरे में बंद है परन्तु वह तिलिस्म क्या है, किसने बनाया है और कैसे बनाया है? इसके बारे मैं कुछ नहीं जानता। इस विषय में मैं तुम्हारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकता हूँ।”
“तुम उदीष्ठा के इतने बड़े मंत्री हो और तुम कह रहे हो कि तुम्हें कुछ नहीं पता।” भुजंग ने अपनी पकड़ ढीली कर दी। “अगर तुम नहीं जानते तो फिर कौन जानता है?”
“देखो यही सच है। भले ही मैं इस राष्ट्र का महामंत्री हूँ परंतु मैं सच कह रहा हूँ, भीषण के कारावास के बारे में हर बात गुप्त रखी गई है। संसार को तो यह भी नहीं मालूम कि भीषण जीवित है। ”अग्निवेश ने अपनी विवशता बताई।
“अगर तुम नहीं तो फिर कौन जानता है उस तिलिस्म के बारे में?” अग्निवेश की बात ने भुजंग को विचलित कर दिया था, उसने अग्निवेश का गला अब छोड़ दिया था। “उस तिलिस्म को कैसे तोड़ा जा सकता है यह कोई तो जानता होगा...”
“यह तिलिस्म शौर्य की निगरानी में बनाया गया था और उनके अलावा महाराज बाहुबल ही केवल इस बारे में जानते हैं। अगर तुम चाहो तो... तो उनसे यह रहस्य जानने का प्रयत्न कर सकते हो।” अग्निवेश ने कहा।
“तुम्हे इस घड़ी हास्य सूझ रहा है।” भुजंग उसके पास आकर बोला, उसकी आँखें क्रोध से लाल थी। “मैं अपने लक्ष्य के इतने समीप होकर और प्रतीक्षा नहीं कर सकता। मुझे किसी भी कीमत पर उस तिलिस्म का तोड़ चाहिए और जब तक मुझे वह नहीं मिल जाता मैं तुम्हें भी चैन से नहीं बैठने दूंगा।”
“जब तुम यह जानते हो कि उनसे यह जानना असंभव है फिर मुझसे तुम इस प्रकार की आशा कैसे कर सकते हो?” अग्निवेश भी नाराजगी से बोला। “जितना मुझसे बन सकता था वो मैंने तुम्हारे लिए किया है, अब इससे आगे मैं विवश हूँ।”
“तो क्या अब तक किए गये मेरे सब प्रयास व्यर्थ? मैं क्या वापस लौट जाऊं?”
“मेरा यह अर्थ बिल्कुल नहीं था।”
“एक बात सुन लो अग्निवेश, अपने लक्ष्य के इतने समीप आकर अब मुझे पराजय स्वीकार नहीं। अगर ऐसा हुआ तो मैं तुम्हें...”
“जरा रुको... हाँ... एक उपाय है,” तभी अग्निवेश को कुछ स्मरण हुआ, उसकी आँखों में चमक आ गई थी। “हाँ एक रास्ता है सब कुछ पता लगाने का, वह स्त्री, हाँ वो स्त्री अवश्य हमें कुछ बता सकती है ।”
“कौन स्त्री? जल्दी बताओ मुझे।”भुजंग को भी कुछ आशा दिखी।
“जरा ठहरो, तुम कुछ पूछो उससे पहले मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उसका नाम क्या है और वो कहाँ रहती है? यह मैं नहीं जानता, यह तुम्हें स्वयं ही पता लगाना होगा।”
“तुम जो जानते हो वह बताओ पहले।”
“देखो एक स्त्री मुझे स्मरण है, जिस समय भीषण को कारावास में डाला जा रहा था वह भी थी वहाँ। कोई और नहीं परन्तु वह थी… मुझे विश्वास है वह अवश्य कुछ जानती होगी इस बारे में।”
“और क्या जानते हो? बोलो जल्दी।”
“मैंने बताया ना कि मैं विशेष कुछ नहीं जानता इस बारे में, हाँ वह आकर्षक थी और थोड़ी विचित्र भी थी, इसके अलावा...” अग्निवेश मौन हो गया इतना कहकर।
“वाह, बहुत- बहुत धन्यवाद तुम्हारी इस सहायता के लिए। तुम कह रहे हो कि मैं किसी दीये के सहारे पूरे संसार में एक स्त्री को खोजूँ जिसका कि मैं नाम तक भी नहीं जानता।”
“भुजंग, तुम भी कुछ करो, मैं भी प्रयास करता रहूँगा।”
भुजंग ने चिड़ कर कहा। “राजा बाहुबल के मंत्री होकर भी आज तक कुछ नहीं जान पाए तुम। मैं पता लगाने का प्रयास करता हूँ परन्तु तुम आराम से मत बैठना, कुछ भी जानकारी हासिल हो मुझे सूचना कर देना।”
 अग्निवेश ने हाँ में सर हिलाया।
 “राजा बाहुबल के नाई बन जाओ तो शायद मेरे कुछ काम आ सको।” यह कहकर भुजंग फिर से उसी अंधेरे में गुम हो गया जहाँ से निकल कर वो आया था, पीछे खड़ा अग्निवेश उसे जाता हुआ देख रहा था और शायद उसके अंतिम वाक्य के बारे में सोच रहा था। अचानक उसे आभास हुआ कि वो अभी तक वहीं खड़ा है, उसने इधर उधर एक क्षण के लिए देखा और फिर अपने रास्ते की और बढ़ चला।

अध्याय 2 - सूर्योदय


युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक



सूर्योदय



भोर होने वाली थीसूर्य की किरणों ने क्षितिज में अपनी लाली बिखेर दी थीआश्रम क्योंकि बहुत उँचाई पर हैं इसलिए सुबह की सबसे पहली किरण आश्रम को दस्तक देती हैं। आश्रम से थोड़ी दूर पर भोमी पर्वत श्रृंखलाओं से बहुत सी जल धाराएँ आकर घाटी में झरने की शक्ल में गिरती हैं। इसी घाटी के उपर झरने के उद्गम से कुछ अंतराल पर है यह आश्रम। इस आश्रम तक आने जाने के लिए घाटी के बगल से एक सीधी चढ़ाई है और अगर इस रास्ते उतरते हुए आगे जाएं तो तापी नदी का किनारा दूर तक साथ चलता है।
भोर के हल्के से उजाले में पाँच आकृतियाँ तापी नदी के मद्धिम प्रवाह में खड़ी थी, ये आकृतियाँ थी वेग, दुष्यंत, प्रताप, मेघ और विधुत की। सूर्योदय से पहले यहाँ स्नान करना, उगते हुए सूर्य को प्रणाम करना, इस प्रकार से ही इन सबकी दिनचर्या की शुरुआत होती है। सूर्योदय होने मे अभी भी समय बाकी था परन्तु सुदर्शन, जो की आश्रम मे सहायक है, उसकी पुकार ने सब का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। उन्होंने देखा वह किनारे पर खड़ा होकर उन्हे पुकार रहा था।
आप सभी को गुरु जी बुला रहे हैंजल्दी पहुँचिए आप लोग...” वह लगभग चिल्ला के बोल रहा था क्योंकि एक तो नदी का शोर और दुसरा किनारा सभी से बहुत दूर था।
क्या कह रहा है सुदर्शनकुछ सुनाई दे रहा है क्या तुम लोगों को?” वेग ने बाकी सब की ओर देख कर पूछा तो सब ने अपनी गर्दन ना में हिला दी।
चलो बाहर चल कर के देखते हैंइस पर कौन सी प्रलय आन पड़ी है जो यह इतने भोर में अपना सब काम छोड़ कर गले का व्यायाम कर रहा है?” प्रताप बाहर की ओर बढ़ते हुए बोला तो सब उसके साथ बाहर चल दिए।
*
चेहरे पर एक अनोखा सा तेजमजबूत कद काठी और लगभग 60 वर्ष की आयु। आश्रम के मुख्य कक्ष में गुरु शौर्य अपने शिष्यों के सामने बैठे हैं। सभी के चेहरों पर उत्सुकता स्पष्ट झलक रही हैसहज ही था क्योंकि आज सूर्योदय से पहले ही गुरु शौर्य ने सभी को एक साथ बुलाया था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।
मुझे यह बताते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है कि आप लोगों ने अपनी शिक्षा लगभग पूरी कर ली है और अब अतिशीघ्र आप लोग हमारास्थान लेने वाले हैं।” शौर्य इतना कहकर एक क्षण को चुप हो गये और सभी की आँखों में देखने लगे। अचानक मिली इस सूचना से सभी के चेहरों के भाव बदल से गये थे।
आप लोगों के साथ इतना समय कैसे बीत गया कुछ पता ही नहीं चला। जो भी हैयह समय तो आना ही था…” 
शौर्य ने सब के चेहरों के बदलते रंग को भाँपकर आगे कहाआप सभी को अचानक क्या हुआक्या आप लोग प्रसन्न नहीं हैंआप सभी ने इतने वर्ष जो तपस्या की है वह सब इसी दिन के लिए तो थी और आप के चेहरों पर कोई हर्ष या प्रसन्नता भी दिखाई नहीं दे रही है।” शौर्य सब के मन की दशा जानते थे फिर भी उन्होंने बिना प्रकट किए सब को सहज करने का यह प्रयास किया था। परंतु शौर्य के इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं था और सभी एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे।
नहींऐसा नहीं है गुरु जीहमें भी प्रसन्नता है परंतु…” विधुत इतना ही कह पाया।
बस अचानक से यह समाचार… हम में से किसी को यह अंदेशा नहीं था इसीलिए कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या कहें?” वेग ने हँसने का प्रयास करते हुए विधुत की बात को पूरा किया।
तुम्हारी स्थिति मैं समझता हूँ क्योंकि बिल्कुल ऐसी ही परिस्थिति में एक समय मैं और मेरे साथी भी थे। परन्तु भरोसा रखो सब कुछ जल्दी ही सामान्य हो जाएगा।” शौर्य ने कहा परन्तु सब के चेहरे अभी भी पूर्ववत मुरझाए हुए से थे।
एक नया प्रारंभ होने वाला है आप लोगों के जीवन में, प्रसन्नता दिखनी चाहिए आपके चेहरों पर। इस प्रकार आप लोग अच्छे नहीं दिखते हैं।” शौर्य के इतना कहने पर भी सब के चेहरे वैसे ही थे। चलो बाहर चल कर बात करते हैं।
शौर्य के साथ सभी आश्रम से बाहर खुले में आ गये थे। सूर्य की झलक अब दिखने लगी थी, उन्होंने उगते हुए सूर्य को देखा फिर एक बार पीछे मुड़कर सब की ओर देखा और उस दिशा चल दिए जहाँ से झरने का पूरा प्रवाह दिखता है।
चले आओरुको नहींमेरे साथ आओ…” वो फुर्ती से जा रहे थेकिसी को समझ नहीं आया कि शौर्य उन्हें कहाँ और क्यों ले जा रहे हैंवो उनके साथ चल दिए।
“मेरा मन भी थोड़ा दुखी है इस बात से कि अब आप लोगों से दूर होने का समय निकट आ गया है,” शौर्य ने कहना प्रारंभ किया। “परन्तु यह तो पहले से तय था सो इस बात से मन को दुखी करने का कोई औचित्य नहीं है। तुमने जो इतने वर्षों के अथक परिश्रम से पाया उसे अब बाँटने का समय आया है। और विश्वास करो कुछ बाँटने में जो आनंद है वैसा आनंद और कहीं नहीं। मैं कभी नहीं चाहूँगा की तुम इस नये जीवन में उदास मन से प्रवेश करो। कुछ विशेष है आप सब में और एक बड़ा दायित्व आप सभी के कंधों पर है। इस गौरव और इस आनंद को अनुभव करके देखो, अच्छा लगेगा
शौर्य उस किनारे पर आ गये थे जहाँ से झरने का प्रवाह और उपर से गिरते हुए पानी का पूरा फैलाव साफ दिखाई दे रहा था। गिरते हुए पानी से हल्की ओस उठ रही थीदूर पहाड़ी के पीछे से सूर्य ने आकाश पर कदम रख दिए थेमखमली धूप घाटी के दोनों ओर वृक्षों पर बिछ गई थी। यह प्रकृति का एक बहुत ही अद्भुत दृश्य था और भोर में पक्षियों के शोर ने इस दृश्य में संगीत सा भर दिया था। शौर्य ने अपने दोनों हाथों को इस प्रकार से फैलाया जैसे कि वो सूर्य की पूरी रोशनी को समेट रहे हों। उनके चेहरे पर एक आनंद से परिपूर्ण मुस्कुराहट उभर आई थी।
आओ और मेरे साथ इस अहसास को स्पर्श करके देखोक्योंकि हर सवेरा नया और सदा की भाँति ऊर्जावान होता है।” शौर्य ने आँखें बंद कर के कहा।
शौर्य की बात का अनुसरण करते हुए सभी शौर्य के दोनों ओर उस की मुद्रा में खड़े हो गये थे। यह एक बहुत ही जीवंत और स्वस्थ अहसास थायह उनके चेहरों पर आए उस तेज से प्रतीत हो रहा था। सच में आज कुछ नया लग रहा था उन सभी कोएक नई उमंग उन सभी के चेहरों पर खिल गई थी।
कुछ पलो के बाद शौर्य ने अपने हाथों को नीचे किया। अब समझ में आया कि आने वाली सुबह भी बिल्कुल ऐसी ही होगी?” उस नये मनोबल के साथ सब के चेहरों पर मुस्कुराहट तैर रही थी।
हाँ गुरु जी, हमें समझ में आ गया।” विधुत ने कहा तो बाकी सब ने भी उसके साथ हाँ में सर हिलाते हुए अपना समर्थन दिया।
और आप लोग यह क्यों भूलते हैं कि आप लोगों की यह मित्रता और एक दूसरे का साथ तो सदैव यूँ ही रहेगाऐसे मित्र तो भाग्य से मिलते हैं।” शौर्य की बात पर सभी एक दूसरे को देखने लगेसब के चेहरे पर अब उल्लास दिख रहा था जो शौर्य की बातों का ही प्रभाव था।
आप सही कह रहे हैं गुरु जीहम समझ गये।” वेग ने कहा।
हाँअब ठीक है। तुम लोगों का उदास होना मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है।” शौर्य वापस आश्रम की ओर मुड़ गये थे। अच्छा अब कुछ और भी ऐसा है जो आप लोगों को मालूम होना चाहिए। आप ही में से किसी एक को अब वह दायित्व भी संभालना होगा जो कि अभी तक मैंने उठा रखा था। महान गुरु "दक्ष" ने जो दायित्व मुझे दिया था वही अब मुझे आगे किसी के हाथों में सौंपना है। यह परन्तु अभी तक हमने निश्चित नहीं किया है कि आप लोगों में से वह कौन होगा। एक शिक्षक होने के नाते मुझे आप सभी पर बहुत गर्व है कि मैंने आप लोगों को चुना। आप सभी ने पूरी निष्ठा और कठिन परिश्रम के साथ अपनी शिक्षा पूरी की है परन्तु…” गुरु शौर्य कुछ देर के लिए चुप होकर सभी को देखने लगे।
“परन्तु अब यहाँ आप में से किसी एक को इस विशेष दायित्व के लिए तैयार होना होगा। आप मे से वह कौन होगा यह मैं अपने साथियों से सलाह करके जल्दी ही घोषणा कर दूँगा। परंतु इस चुनाव का इतना महत्व क्यों है यह मैं आप लोगों को अवश्य बताना चाहूँगा।” वह थोड़ा रुके यहाँ पर और फिर कहना प्रारम्भ किया। आप लोग हर प्रकार से योग्य और संपूर्ण हैंआप लोगों में तुलना करने का कोई आधार नहीं है और मेरे लिए आप सभी एक समान हैं। परन्तु इसके बनिस्बत अब आप में से किसी एक को ही आगे नेतृत्व का भार उठाना है। हमारी शक्ति को संगठित रखने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि नेतृत्व किसी एक के हाथ में हो। नेतृत्व होने से एक तो शक्ति का कभी बिखराव नहीं होता दूसरा इससे हम लक्ष्य के प्रति भ्रमित नहीं होते। और यह इसलिए भी बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके बिना आप लोगों को बहुत से निर्णय लेने में कठिनाई हो सकती है। परन्तु हाँ, इससे नेतृत्व करने वाले का उत्तरदायित्व कहीं अधिक बढ़ जाता है क्योंकि उसके हर एक उचित या अनुचित कदम का प्रभाव बाकी सब पर भी बराबर पड़ेगा। कठिन परिस्थितियों में उसे अपने साथियों का मार्गदर्शन भी करना होगा और उन्हें हर संकट से सुरक्षित रखना भी उसी का दायित्व होगा।”
शौर्य फिर थोड़ा रुके और कहना प्रारम्भ किया। “हाँ, चूँकि अब जब भार बढ़ेगा तो उस भार को संभालने के लिए एक अतिरिक्त शक्ति भी उसे मुझसे प्राप्त होगी।” यहाँ पर सब के चेहरे पर एक उत्सुकता उभर आई थी। “लेकिन यह शक्ति भी स्वयं में एक बड़ा दायित्व है। यह उपयोगी तो है लेकिन इसको सुरक्षित रखना भी एक चुनौती है।"
क्या है यह शक्ति गुरु जी?” मेघ से रहा नहीं गया तो उसने पूछ लिया परन्तु बाकी सब की आँखों में भी यही प्रश्न था
बहुत जल्दी तुम्हे इस शक्ति और इसके उपयोग दोनों के बारे में मैं सब कुछ बता दूँगा। अभी इतना जान लो कि इसी शक्ति के फलस्वरूप से हमने और हम से भी पहले भी तपोवनियों ने कई बार संभावित परिणामो को बदल दिया था। प्रभावशाली होने के साथ यह निश्चित ही घातक भी है, इसका वरण करने के लिए धारक को हर प्रकार से सक्षम होना आवश्यक है। अगर यह शक्ति अनुचित हाथों में चले जाए तो इसका दुरुपयोग भी हो सकता है। संभावना परन्तु इसकी बहुत थोड़ी है।”
ऐसा क्यों गुरु जी?” इस बार विधुत ने पूछा
 “क्योंकि कोई साधारण मनुष्य तो इसे धारण कर ही नहीं सकताऐसा करने का प्रयास भी उसके प्राण ले सकता है। किसी साधारण मनुष्य का शरीर इस शक्ति को एक क्षण भी सहन नहीं कर सकता है।” शौर्य का जवाब विधुत को अधिक संतुष्ट नहीं कर पाया तो शौर्य उसके पास आकर बोले
विधुत, इस शक्ति को केवल एक शक्तिशाली शरीर ही धारण कर सकता है। जैसे अंतिम सीढ़ी तक पहुँचने के लिए पहले पहली सीढ़ी से आरंभ करना होता है ठीक वैसे ही इस शक्ति को नियंत्रित करने के लिए जो मापदंड निर्धारित हैं या जिन शक्तिशाली तत्वों की उपस्थिति का शरीर में होना आवश्यक है वो सब केवल आप लोगों ने इस शिक्षा में अर्जित किए हैं। एक तपोवनी का शरीर ही बस इस शक्ति को धारण कर सकता है और नियंत्रण में रख सकता है। ” विधुत के साथ बाकी सब भी शौर्य की बात को ध्यान से सुन रहे थे
अभी इस विषय पर अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं हैजितना सोचोगे उतने ही प्रश्न निकलेंगेसमय आने पर आपको सब ज्ञात हो जाएगा।” शौर्य की बात पर सब ने सहमति प्रकट की थी
तो फिर अब आप लोग अपनी प्रसन्नता का आनंद उठाइए और मुझे जाने दीजिए।” यह कहकर शौर्य वहाँ से चले गये
क्या हुआ प्रताप तुम्हारा चेहरा क्यों मुरझा गया हैअभी तक तो बड़े खिले-खिले दिखाई दे रहे थे।” शौर्य के जाने के बाद वेग ने प्रताप से पूछा
कुछ भी तो नहीं वेगमुझे भला क्या होगामैं एकदम ठीक हूँबल्कि मैं तो कबसे इस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था। इस दुनिया से मिलने की चाह तो जाने कबसे मेरे मन में थी।” प्रताप ने कहा।
“परंतु तुम्हारा चेहरा तो कुछ और ही कह रहा था।” मेघ ने कहा।
वो यह जानकर कि तुमसे पीछा कभी नहीं छूटेगा, तुम्हे आगे भी सदा झेलना पड़ेगा।” प्रताप ने मुंह बनाते हुए कहा
तुम मुझे झेलते होहा हा हा... हम सब तुम्हें झेलते हैंसमझे।” मेघ ने कहा
कुछ भी बोलो, मेरे बिना तुम लोग कुछ भी नहीं हो।”
“यह तुम्हारा भ्रम है।” मेघ ने कहा
चला जाऊँगा किसी दिन तो समझ आएगा तुम्हे कि मेरा तुम सब के बीच क्या महत्व है?”
जाने तो हम तुम्हें कभी देंगे नहीं।” इस बार विधुत ने कहा
वो क्यों भला?”
“तुम्हें झेलने की आदत जो पड़ गई है अब।” मेघ की इस बात पर सब के चेहरों पर एक बार हँसी आ गई परन्तु दुष्यंत शायद कुछ सुन ही नहीं पाया थावह बस अपने में ही कुछ सोच रहा था। सब ने अचानक इस बात को महसूस किया
कहाँ खोए हो दुष्यंत?” वेग ने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा तो वह जैसे नींद से जागा
हाँ... कहीं भी तो नहीं,” वह बोला। “बस गुरु जी ने जो कहा वही सोच रहा था।”
छोड़ो भी अब उस बात को, यह तो एक नया आरंभ है और शीघ्र ही हम इसके आदि भी हो जाएँगे, मुझे विश्वास है।”
हाँ तुम सही कह रहे हो।” कहते हुए सभी आश्रम की बढ़ गये

अध्याय 3 - अपहरण



युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक


अपहरण




निशिकन्ड़क नगर, त्रिशला राष्ट्र की पश्चिमी सीमा के निकट यह नगर व्यापार के दृष्टि से बहुत अच्छा स्थान है। अनुकूल भौगोलिक परिस्थिति, समुद्र तट का किनारा और सुगम रास्तों के कारण से यह कई देशों के लिए व्यापार का एक केंद्र है। आस पास के छोटे कस्बे भी अपनी आवश्यकताओं के लिए इसी नगर पर निर्भर रहते हैं। यहाँ का हाट सदा भीड़ से भरा रहता है। भीड़ में ही आज कुछ सिपाही भी शामिल थे और उन सभी की दृष्टि कुछ महिलाओं पर थी जो उन सिपाहियों की मंशा से अंजान अपने काम में व्यस्त थी। और हाट के बाहर…।
श्रीमान, अपना काम कीजिए परन्तु सावधानी सेभीड़ में मुझे किसी प्रकार का बवाल नहीं चाहिए।” निशिकन्ड़क का नगरपाल था यह, जो थोड़ा सा चिंतित भी था
आप निश्चिंत रहिए महोदयहम यहाँ उसे छूएंगे भी नहीं।” उस सेना नायक ने आश्वासन दिया जो शायद त्रिशला राष्ट्र का नहीं था
और हाँ, काम पूरा करके आप त्रिशला राष्ट्र की सीमा से शीघ्र ही बाहर भी हो जाइए। किसी ने आप लोगों को पहचान लिया तो मेरी नौकरी संकट में पड़ जाएगी।”
ऐसा ही होगा, हम आपको किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होने देंगे। आप राशी गिन लीजिए कहीं कम तो नहीं है?”
“जोखिम को देखते हुए तो कम ही है।”
“भरोशा रखिए, अगर इनमें से कोई हमारे काम की निकली तो जितना आपने सोचा नहीं उससे भी कहीं अधिक मिलेगा आपको।” कहकर वह अधिकारी अपने सिपाही की ओर मुड़ा। कितनी हैं?”
“छः या सात हैं श्रीमान।” सिपाही ने उत्तर दिया
“कोई संदेह उन्हे अभी तक?”
“नहीं श्रीमान, थोड़ा भी नहीं।”
बहुत बढ़िया।” वह सेना नायक उस नगरपाल की ओर मुड़ा। “श्रीमान, सब कुछ हमारी योजना के अनुसार चल रहा हैआप निश्चिंत हो जाइए। आप बस उसका ध्यान रखना जो मैंने आपसे कहा था।”
मुझे संकेत दे दीजिएगामेरे सिपाही तैयार हैं।”
“धन्यवाद श्रीमान।” कहकर वह अपने सिपाहियों की ओर बढ़ गया जो कुछ दूर खड़े थे। “अवसर हाथ से जाना नहीं चाहिए,” अब वह सब को समझा रहा था। “जैसे ही कोई एक बाकियों से अलग हो तुरंत दबोच लेना हैपरन्तु बाकियों को थोड़ा भी पता नहीं चलना चाहिए अन्यथा वो छः- सात होकर भी हम पर भारी पड़ सकती हैं समझ गये?” सभी ने हाँ में सर हिलाया
जब्बार कहाँ है?” सेना नायक ने पूछा
मैं यहाँ हूँ श्रीमान।” जब्बार बोला जो अभी वहाँ पहुँचा था
...फो... तुम कहीं से भी भिखारी प्रतीत नहीं हो रहे हो, भिखारियों के वस्त्र इतने साफ सुथरे नहीं होते मूर्ख। देखने से ही लग रहा है कि तुमने जानबूझकर इन्हें फाड़ा है।”
मुझे यहाँ पुराने वस्त्र कहीं नहीं मिले श्रीमान।”
तो नंगे भिखारी बन जाना था, उतारो इसके वस्त्र।” सेना नायक ने झुंझलाकर दूसरे सिपाहियों से कहा। “और इसको जितना भद्दा और कुरूप बना सकते हो बनाओ।”
चलो।” सिपाहियों को थोड़ी हँसी आ गईवो उसे अपने साथ ले गये
थोड़ी देर में एक और सिपाही दौड़ कर वहाँ पहुँचा। “श्रीमान, वो आ रही हैं।
तैयार हो जाओ सभी, अपना-अपना स्थान ले लो।” कहने के साथ सभी फुर्ती से गति में आ गये। “तुम लोग मेरे संकेत की प्रतीक्षा करना, मेरा संकेत मिलते ही उसे उठा लेना।” चार-पाँच सिपाहियों को वह सेना नायक अलग से निर्देश दे रहा था जो कि आम नागरिकों के भेस में थे
कुछ देर में ही वो महिलाएँ वहाँ आती हुई दिखाई देने लगी थी, रास्ते पर थोड़े कम ही लोग थे क्योंकि नगरपाल ने वह रास्ता कुछ देर के लिए बंद करवा दिया था ताकि उसके इन मित्रों को अपना उद्देश्य पूरा करने में आसानी हो। उस भिखारी बने सिपाही ने भी रास्ते पर आकर अपना स्थान ले लिया था, उसके अधनंगे शरीर से आती दुर्गंध से पता चल रहा था कि उसे किसी तबेले में ले जाकर तैयार किया गया था। महिलाओं के कुछ आगे आने पर एक हाथ गाड़ी वाला व्यक्ति भी उनके पीछे कुछ अंतराल पर चलने लगा। सभी महिलाओं के हाथों में कुछ ना कुछ सामान था जिसे वो वहाँ खड़ी एक बग्घी की ओर लेकर जा रही थी। वो सभी उस भिखारी के सामने से होकर निकली परन्तु जैसे ही सबसे पीछे वाली महिला उसके पास पहुँचीवह एकाएक उसके सामने आ गया। उसके यूँ सामने आ जाने से और उस दुर्गंध से जो उसके शरीर से आ रही थीउस महिला को रुक जाना पड़ा। वह एक कदम पीछे हट गई
माई, खाने को कुछ दे दो… दो दिन से भूखा हूँ माई…” वो दुर्बलता से लड़खड़ाने का अभिनय कर रहा था
हाँ, हाँ... दूर रहो बाबा... मेरे पास कुछ नहीं है अभी खाने को।” वह पीछे हटते हुए बोली
माई, कुछ दे दो… भगवान तुम्हें सुखी रखेगा।” उसने रास्ता बदलने का प्रयास किया परन्तु वह बार-बार उसके सामने आ जा रहा था
मेरे पास कुछ नहीं है… सच…” वह उसको पार नहीं कर पा रही थी। “विभा...” उसने आगे जा चुकी अन्य महिलाओं को सहयता के लिए पुकारा, विभा ने पलट कर देखा ही था कि तभी सामने से कुछ शोर सुनाई देने लगाठीक वहाँ से जहाँ उनकी बग्घी खड़ी हुई थी।
अरे बाबा, तुम किसी और से क्यों नहीं मांगतेकहा ना मेरे पास कुछ नहीं है।” उसे अब गुस्सा आने लगा था। “मेरा रास्ता छोड़ोजाने दो मुझे।”
दूसरी ओर, बग्घी के पास एकाएक उठे उस शोर के कारण को समझने के लिए सभी घटनास्थल की ओर देखने लगे। ठीक इसी समय उस सेना नायक का संकेत पाकर साधारण वेश वाले सिपाही उस अकेली महिला की ओर बढ़े। भिखारी से उलझी वह महिला अपने पीछे आ चुके उन तीन सिपाहियों से बिल्कुल अंजान थी। अचानक दो सिपाहियों ने उसकी बाजुओं को मजबूती से पकड़ लिया। वह कुछ समझ पाती उससे पहले ही तीसरे सिपाही ने उसके चेहरे पर कोई वस्त्र लगाकर उसका नाक मुंह बंद कर दिया। उस वस्त्र में कुछ ऐसा था जिससे वह एक क्षण में मूर्छित हो गई
दूसरी ओरवहाँ वह किसी के झगड़ने का शोर था। जो कुछ राहगीर वहाँ मौजूद थे वो भी दौड़कर वहाँ जा चुके थे। ऐसे में उस भिखारी और उस महिला पर किसी की दृष्टि नहीं थी। सही समय पर वह हाथ गाड़ी वाला व्यक्ति उनके पास पहुँच गयासिपाहियों ने इधर उधर देखा और जल्दी से उस महिला को उसके समान के साथ उस हाथ गाड़ी में डाल दिया। भिखारी ने भी इस पर्यन्त गाड़ी में पहले से रखा साफ कुरता और एक पगड़ी पहन ली। उस महिला को वस्त्र से ढक कर वह व्यक्ति अपनी राह चलने लगा और बाकी सिपाही उस दिशा की ओर दौड़ कर गये जहाँ बाकी राहगीर चले गये थे
भीड़ के पीछे वो महिलाएँ जब तक वहाँ पहुँची जहाँ शोर प्रारम्भ हुआ था, तब तक झगड़ा समाप्त हो चुका था क्योंकि नगरपाल के आदेश पर उन दो लोगों को हिरासत में ले लिया गया था जो वहाँ उत्पात मचा रहे थे।
पीछे हटो सभी… सब ठीक हैकुछ नहीं हुआ।” भीड़ को हटाने के लिए सिपाही यह कहते हुए आगे बढ़े
विभा को याद आया की उनकी एक साथिन पीछे रह गई हैउसने पीछे मुड़ के देखा परन्तु वहाँ खुला रास्ता था जिसपर कोई नहीं था। उसने चारों दिशा में दृष्टि दौड़ाई परन्तु वह उसे दिखी नहीं। नगरपाल देख रहा था उस मूर्छित महिला को जिसे वो लोग सब के बगल से लेकर जा रहे थे, उसका हृदय धड़कने लगा क्योंकि अब बाकी महिलाओं को भी उनकी एक साथिन के लापता होने का भान होने लगा था
कहाँ गई सुगंधिकाअभी-अभी तो यहीं थी।” विभा ने चौंक कर कहा
आश्चर्य का कारण यह भी था कि अधिकाधिक चालीस कदम चलने के समय मात्र में वह वहाँ से नदारद थीजबकि वापस पीछे दो सौ कदमों की दूरी तक गिनती के दो चार लोग दिखाई दे रहे थे और सुगंधिका वहाँ उनमें नहीं थी
वह हमारे पीछे नहीं थी क्या?” एक दूसरी महिला ने पूछा
बिल्कुल हमारे पीछे थी। अभी दो क्षण पहले उस भिखारी के पास… अरे वह भिखारी...” वह दुबारा चौंक गई। “वह भिखारी भी तो नहीं है यहाँ।”
तुम घबरा क्यों रही होयहीं कहीं चली गई होगी।”
“इतनी शीघ्रता से?”
तुम्हें पता हैहम जा सकती हैं कहीं भी, इतनी शीघ्रता से।”
यूँ सब के बीच में से नहीं परन्तु… और वह भिखारीवह कहाँ गया?” विभा ने पूछा
तमाशा देखने वालों के साथ चला गया होगाहमारा ध्यान भी तो यहाँ नहीं था।”
तमाशा देखने वालों में वह भिखारी नहीं है। वह मरियल भी इतनी जल्दी कहीं भाग गयाहैं ना?”
तो तुम कहना चाहती हो कि दो क्षण में धरती फटी और सुगंधिका उस भिखारी को गोद में लेकर उसमें कूद गईउसके बाद धरती फिर से वैसे ही हो गई?
नहीं, परन्तु...”
चलो सभीवह पहुँच जाएगी।” वह दूसरी महिला यह कहते हुए आगे बढ़ गई।
मगर...” विभा ने कुछ कहना चाहा परन्तु उसे अनसुना कर सब चल दी वहाँ से
विभा जानती थी कि धरती उसे नहीं निगली है परन्तु बाकियों की सोच को झुठलाने के लिए उसके पास कोई उत्तर भी नहीं था। उसकी दृष्टि अब भी चारों ओर घूम रही थी किसी उत्तर के लिए। दूर जाते हुए उस हाथ गाड़ी वाले व्यक्ति को विभा ने देखा था परन्तु उसमें उसे थोड़ा भी कुछ असामान्य नहीं लगा था
चलो अब, वह आ जाएगी उसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।” बाकी सब निश्चिंत होकर रथ तक पहुँच गई थी और अपना सामान उसमें रखने लगी थीविभा भी सर खुजलाते हुए उनके पीछे चल दी
बिना किसी को संदेह हुए यहाँ एक महिला का अपहरण हो चुका था। उस गाड़ी वाले के आँखो से ओझल होने के पश्चात ही नगरपाल और उस अधिकारी के हृदयों की गति सामान्य हो पाई थी। एक दूसरे को आँखो ही आँखो में बधाई दे रहे थे दोनों

अध्याय 4 - अंतर्द्वंद



युगान्धर-भूमि
ग्रहण की दस्तक





अंतर्द्वंद

शौर्य ने अपने शिष्यो को इस स्तर पर लाने हेतु पंद्रह वर्ष परिश्रम किया है। और केवल शौर्य ने नहीं अपितु शौर्य के अन्य साथी तपोवनियों विराट, देव, तेजस एवं अंगद ने भी मध्यकाल में इनके शिक्षक की भूमिका निभाई है किंतु उन सभी की समयावधि सीमित रही। शिक्षणकाल में कुछ विशेष विधाएँ इन शिष्यों ने उनसे प्राप्त की हैं। सभी ने एक ही प्रकार की शिक्षा प्राप्त की लेकिन शारीरिक व मानसिक प्रकृति के अनुसार सभी में उनके अपने गुण उन्नत हो सके। मेध निसंदेह धनुर्विद्या में सबसे श्रेष्ठ बन चुका था और इसके लिए तपोवनी सहदेव ने शिक्षक के रूप में मेघ पर विशेष ध्यान दिया था। गति एवं चपलता प्रताप की विशेषता थी। विधुत अपने कद और काया के अनुरूप पांडवों में भीम के समतुल्य था। दुष्यंत को सभी अस्त्र एवं शस्त्र चलाने का अभ्यास बाल्यकाल से ही था जिन पर यहाँ उसने महारत हासिल कर ली थी। अस्त्र एवं शस्त्रों पर वेग का नियंत्रण भी अच्छा था किंतु वेग की विशेषता उसकी स्थिरता व एकाग्रता थी।
भाला युद्ध का अभ्यास चल रहा था, दुष्यंत और वेग आमने-सामने थे। दोनों के भाले बिजली की भाँति एक दूसरे से टकरा रहे थेटक्कर सदा की भाँति बराबर की लग रही थी। दोनों के पास एक दूसरे के वारों का हर जवाब था। दोनो अक्सर इस प्रकार अभ्यास करते रहे हैं।
“मैनें कह दिया है आज विजेता वेग होगा।” प्रताप पास में खड़े मेघ से कह रहा था
हो ही नहीं सकता, विजेता होगा दुष्यंत।”
दुष्यंत थक चुका है और वेग उस पर हावी हो रहा हैआज दुष्यंत की हार निश्चित है।” प्रताप ने कहा
थकने तो वेग भी लगा हैध्यान से देखो प्रताप। दुष्यंत पर विजय प्राप्त करना आसान नहीं है बालक।”
सच में दोनों पसीने से नहा चुके थेप्रताप वेग का तो मेघ दुष्यंत का मनोबल बढ़ाने के लिए चिल्ला रहे थे
अभ्यास को केवल अभ्यास की भाँति देखोयह कोई जुए का खेल नहीं है।” विधुत ने कहावह बस सहजता से युद्धाभ्यास देख रहा था परन्तु प्रताप और मेघ सदा की भाँति आँखें गड़ा के बैठे थे
शांत रहो विधुत।” मेघ ने बिना उसकी ओर देखे कहा
बहुत लंबा हो गया है अब परिणाम भी दिखा दो।” प्रताप उतावलेपन से बोल रहा था
हाँ, हाँशाबाश दुष्यंत शाबाशगया, गयाबस जाने वाला है वेगहा हा...”
वेग नहीं हारेगा आज।”
चुपचाप आगे देखो प्रतापअभी पता चल जाएगा कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा?
वेग अचानक दुष्यंत पर हावी होने लगादुष्यंत का भाला उसके हाथ से छूटने ही वाला था परन्तु तभी दुष्यंत के पैरो का वार वेग संभाल ना सका और उसका शरीर दूर पेड़ से जा टकराया। वह धरती पर आ गिरा और फिर उसके उठने से पहले ही दुष्यंत ने उसकी गर्दन से अपना भाला लगा के उसे हार स्वीकारने के लिए बाध्य कर दिया
वो मारा... शाबाश दुष्यंत… देखा प्रतापजीत गया ना दुष्यंत।” मेघ ने प्रताप को चिढ़ाने के लिए कहा
“तुमसे युद्ध में जीत पाना बहुत कठिन है दुष्यंत,” वेग ने भाला नीचे करते हुए कहा था।
“बहुत ही बढ़िया और सटीक प्रहार, मुझे अभी और मेहनत की आवश्यकता है तुम्हे मात देने के लिए।”
“वेग, मुक़ाबले मे तो तुम भी कम नहीं हो।” दुष्यंत ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया, दोनों हाँफ रहे थे... “शुरुआत तुम्हारी शानदार थी और मुझे तो लगा था कि आज तुम मुझे परास्त कर दोगे।”
“वह इतना आसान नहीं है दुष्यंत। ”
“केवल अंतिम समय में मेरा पलड़ा भारी था वेग, तुम यह जानते हो। ”
“वो मैं ही जानता हूँ तुम्हारे सामने मैं अंत तक कैसे डटा रहा।”
“मेरी भी वही स्थिति थी, हा हा हा।” दुष्यंत हँसने लगा।
“तुम पर विजय प्राप्त करना तुम्हारे किसी प्रतिद्वंदी के लिए कठिन है दुष्यंत। परंतु बाईं ओर की तुम्हारी सुरक्षा में अभी सुधार की आवश्यकता है।”
“मैं ध्यान रखूँगा।” दुष्यंत ने कहा।
“क्या कठिन था वेग? अच्छा भला जीता हुआ दाँव हार गये तुम, सदा की भाँति।” प्रताप बीच में बोला।
“तो क्या हुआ प्रताप? यह केवल अभ्यास था कोई युद्ध नहीं, हार जीत के बारे में इतना विचार क्यों?”
“फिर भी तुम इतने कुशल लड़ाके होते हुए भी अंत तक पहुँचते-पहुँचते जाने क्यों पीछे रह जाते हो?” प्रताप हल्का खिजते हुए कह रहा था।
“अगली बार मैं दुष्यंत को मात मैं अवश्य दूँगा।”
हा… हा… देख लेंगे अगली बार भीतू इसके साथ रहेगा तब तक तो यह कभी नहीं जीतेगा।” मेघ ने प्रताप को छेड़ने के लिए कहा
ठहर अभी तुझे बताता हूँ।”
इस अभ्यास पर गुरु शौर्य की आखें भी थीअभ्यास समाप्त होने के साथ वो भी उनके बीच आ पहुंचे थे। उन्हें देखकर सब शांत हो गये
अद्भुततुम दोनों का प्रदर्शन बहुत अद्भुत था।” शौर्य खुश होते हुए कह रहे थे। “प्रतापवेग सही कह रहा है, यहाँ हार या जीत के कोई अर्थ नहीं हैं क्योंकि यह समय तो केवल हमले को समझने का है और यही वो है जो आने वाले समय में अनुभव बनकर तुम्हारे साथ रहेगा। ये दोनों ही अद्वितीय है और मुझे भरोसा है कि जब ये असली युद्ध के मैदान में होंगे तो इन दोनों को ही हराना इनके शत्रु के लिए संभव नहीं होगा।”
जी गुरु जी।” प्रताप ने सहमति से कहा
और हाँकेवल ये दोनों ही नहीं बल्कि मुझे आप सब पर भरोसा हैभविष्य में आप सब शत्रु के लिए ना पार कर सकने वाली चुनौती रहोगे।” शौर्य ने सब को एक दृष्टि देखा। “क्या ऐसा नहीं है?”
सब ने मुसकुरा के हाँ में सर हिलाया। “हाँ, ऐसा ही है गुरु जी।” विधुत ने कहावह तिरछी आँखों से प्रताप और मेघ को देख रहा था
क्या हुआ प्रताप तुम्हें?” प्रताप और मेघ दोनों जो अब तक झगड़ रहे थे शौर्य के वहाँ आ जाने से एकदम मौन हो गये थे। “मेरा उद्देश्य तुम्हें असहज करने का कतई नहीं था प्रताप। मैं तो बस यूँ ही आ गया थातुम जारी रखो।”
शौर्य फिर वेग की ओर मुड़े। “तुम मेरे साथ आओ वेगमुझे तुमसे कुछ बात करनी है।” शौर्य एक दिशा में बढ़ते हुए बोले तो वेग उनके पीछे चल दिया। उनके जाते ही मेघ और प्रताप फिर से प्रारम्भ हो गये थे।
“अपने वचन के अनुसार अश्वों को नहलाने और सुखी लकड़ियाँ लाने का कार्य आज तुम करोगे।” मेघ ने धीमे स्वर में प्रताप से कहा।
“हाँ ठीक है,” प्रताप ने मुँह बनाते हुए कहा।
आज से पहले भी शौर्य ने कई बार वेग से इस प्रकार बात की थी परंतु आज दुष्यंत को यह थोड़ा विचित्र लगा था, उसने इस पर से ध्यान हटाने का प्रयास किया और अस्तबल की ओर चला गया
“तुम्हें क्या इसी में खुशी मिलती है वेग?” शौर्य ने कहा तो वेग आश्चर्य से उनका चेहरा देखने लगा
ऐसे क्या देख रहे हो वेगक्या तुम समझते हो तुम जो कर रहे हो वह मुझसे छुपा हुआ है?” शौर्य ने रहस्य वाली मुसकुराहट के साथ पूछा और फिर कहा। “वेग मुझे मालूम है तुम जानबूझकर दुष्यंत से हारते हो और यह बात मुझे बहुत पहले से पता है मेरे बच्चे।” वेग निरुत्तर सा खड़ा था शौर्य के आगे
हा हा हामैं तुम्हारा गुरु हूँ वेगजिस वार को तुम आसानी से संभाल सकते हो उसी पर मात खाओगे तो क्या मुझे पता नहीं चलेगा?” वेग अब भी चुप था। “अब इस बात को स्वीकार भी करो वेग।”
हाँ गुरु जी, आपने सही पहचानापरंतु मुझे अपने इन मित्रों को मात देना अच्छा नहीं लगता। मेरी योग्यता मेरे पास है गुरु जीआवश्यकता होने पर उसका मैं सही उपयोग करूँगा परंतु अगर मेरे यहाँ परास्त होने से दुष्यंत का या किसी का भी मनोबल बढ़ता है तो मैं इसमें ही खुश हूँ।”
तुम्हारी सोच का मैं सम्मान करता हूँ वेग, इसीलिए मैंने आज से पहले कभी तुमसे यह प्रश्न नहीं किया परंतु अब जब समय आ गया है तुम सब से अलग होने का तो तुमसे यह पूछ लेने का जी चाहा… बस।” वेग मुसकुरा दिया
परंतु आपने यह कब जाना गुरु जी?”
उसी दिन जब तुम पहली बार दुष्यंत से पराजित हुए थे।” वेग ने आश्चर्य से शौर्य को देखा। “हाँ वेग मुझे स्मरण है दुष्यंत का पहली बार इस आश्रम में आनावह कितना असहज था पहली बार तुम लोगों के बीच आकरउसे इस जीवन का अभ्यास नहीं था, वह महलों में से जो आया था। मुझे लगा दुष्यंत के लिए यह कठिन होगा परंतु तुम्हारे साथ ने उसे सहारा दिया और शीघ्र ही वह भी तुम में से ही एक बन गया।”
थोड़ा रुक के शौर्य ने फिर कहा। "वेग, यहाँ तक तो ठीक था लेकिन अब समय अपने स्वयं के उचित मूल्यांकन का है। छोटा सा भी भ्रम बड़ी चूक का कारण बन सकता है।"
शौर्य के अंतिम वाक्य को सुन वेग विचार की मुद्रा में उन्हे देखने लगा तो शौर्य ने आगे कहा। “अच्छा अब जब तुमने अपने मन की बात मुझसे कही है, तो अब एक बात मैं भी तुम्हें बताना चाहता हूँ।”
“कहिए गुरु जी।”
दुष्यंत यहाँ एक शिष्य बनकर नहीं आया था क्योंकि हमने उसे इस शिक्षा के लिए कभी चुना ही नहीं था। हमारे मित्र, दुष्यंत के पिता राजा बाहुबल के बार-बार प्रार्थना करने के कारण हमने दुष्यंत को एक बार परखने के लिए सहमति दे दी थी। दुष्यंत का प्रारम्भिक समय उसे स्वयं को प्रमाणित करने के लिए था और अगर वह इस जीवन से तालमेल नहीं कर पाता तो उसका वापस लौटना तय था। तुम जानते हो तब दुष्यंत का स्वभाव यह नहीं था। उसके भीतर तब एक उग्रता थी जो धीमे धीमे शांत हुई। तुम सभी ने उसे सहारा दिया किंतु मैं इसका विशेष श्रेय तुम्हे ही दूँगा।”
“उससे स्वयं ने भी बहुत परिश्रम किया है गुरुजी।”
“हाँ मैं जानता हूँ, उसे चुनने का पछतावा नहीं है मुझे, लेकिन... ।” शौर्य एक पल के लिए चुप हुए।
“लेकिन...?” वेग ने पूछा।
“लेकिन उसके भीतर जो अग्नि है उसे तुम्हारी शीतलता की अभी भी आवश्यकता है।” 
“ऐसा ही होगा गुरु जी।”
एक बात और, यह बात हमारे दोनों के बीच में ही रहनी चाहिएसमझे?”
वेग...” तभी प्रताप ने दूर से पुकारा
आप निश्चिंत रहिए गुरु जी। मुझे अब आज्ञा दीजिएमुझे जाना होगा।” शौर्य ने मुसकुरा के सहमति दे दी
अभी आया प्रतापदुष्यंत को भी बुलाओ।” वेग ने चिल्ला के उत्तर दिया
आज से पहले किसी के मन में यह विचार भी नहीं आया था कि भविष्य में उन्हीं में से कोई शौर्य का स्थान भी लेगा। और अब साथ में ही इस अद्भुत शक्ति के बारे में जानने के बाद दुष्यंत का एकांत में सोचना अधिक हो गया था। किसको यह शक्ति मिलेगीवह इसकी गणित में उलझने लगा था। उसे कभी वेग इसके लिए उत्तम प्रतीत होता परंतु दूसरे क्षण ही उसका मन चुनाव का आधार तलाशने लगता। युद्ध के मैदान में वेग उसके निकट था परंतु उससे आगे नहीं था। अनुशासन, आज्ञाकारिता और परिश्रम में वह भी वेग के समान ही था फिर वेग के स्थान पर उसे क्यों नहीं चुना जाएअगले क्षण वह सोचता कि वेग उसका बहुत अच्छा मित्र हैउसे वेग के बारे में ऐसा नहीं सोचना चाहिए
दुष्यंत अश्वों को खोल दो अबकहाँ खोए हो?” प्रताप की आवाज से दुष्यंत का ध्यान भंग हुआ
खुलने के साथ ही सारे अश्व घाटी की ओर दौड़ चले और उनके पीछे मेघ, प्रताप, विधुत और वेग भी परंतु दुष्यंत आज उनसे एक अंतराल पर था
*
सब कुछ सहज ही था परंतु पिछले एक-दो दिनों से दुष्यंत के मन में कुछ अशांति व्याप्त थी। उसका ध्यान अपने अभ्यास से अधिक कहीं और भटकने लगा था। आश्रम से दूर झरने के किनारे, बहते पानी की धारा में कहीं खोया सा दुष्यंत अपने अतीत में जाने लगा था। झरने का साफ पानी उसे दर्पण सा प्रतीत हो रहा था जिसमें दुष्यंत वो सब कुछ साफ-साफ देख पा रहा था जो कि वो देखना चाहता था।
राजा बाहुबल का इकलौता पुत्र दुष्यंत, आम बालकों की भाँति उसे खिलौनों से खेलना कभी नहीं भाया था, इसके विपरीत उसकी रूचि अस्त्र एवं शस्त्र चलाने में कहीं अधिक थी। छोटी सी आयु में हथियारों पर उसका नियंत्रण देखकर कोई भी हतप्रभ हुए बिना नहीं रह सकता था। नववर्ष के उत्सव में इस बार भांति भांति की स्पर्धाएं होनी थी। दुष्यंत ने जब हठ नहीं छोड़ी तो राजा बाहुबल मना नहीं कर सके और तलवारबाजी की स्पर्धा में दुष्यंत का भाग लेना तय हो गया।  दुष्यंत ने सभी चरण आसानी से पार कर लिए थे और मुकाबले के आखिरी चरण में पहुँच गया था। दुष्यंत आस पास के क्षेत्रों में चर्चा का विषय बन चुका था। विशेष तौर पर दुष्यंत के मुकाबले को देखने के लिए आज बहुत बड़ी भीड़ वहाँ उपस्थित थी। एक तरफ दुष्यंत जिसने अभी अपने तेरहवें वर्ष में प्रवेश किया था और उसके सामने उदिष्ठा राज्य का सबसे कुशल तलवारबाज नरपति खड़ा था। बाहुबल नरपति की क्षमता से परिचित थे इसलिए वो दुष्यंत के लिए थोड़े चिंतित थे। नरपति भी जानता था कि दुष्यंत पिछले सभी मुकाबले जीतकर इस अंतिम चरण में पहुंचा है तो कुछ तो विशेष दुष्यंत में है।  मुकाबला शुरू हुआ और नरपति ने आक्रामक रूप से दुष्यंत पर ताबड़तोड़ वार करना शुरू कर दिया। वह दुष्यंत को वार करने का मौका ही देना नहीं चाहता था। दुष्यंत अपनी ढाल से उसके वारों को झेलते जा रहा था लेकिन कुछ ही देर में दर्शकों ने दुष्यंत के संभल पाने की आशा छोड़ दी थी। उलट इसके दुष्यंत ने अपने प्रतिद्वंदी को थकाने की रणनीति बना ली थी और अपनी ढाल को मजबूती से थामे रखा। अचानक दुष्यंत ने अपना पैंतरा बदल लिया। वही तेजी से नरपति की टांगो के बीच से फिसल कर उसके पीछे जा खड़ा हुआ। नरपति के पलटने के साथ बिजली की गति से उसने वार करने शुरू कर दिए, नरपति के लिए जिन्हें संभालना भारी होने लगा। इस आकस्मिक उलटफेर से भीड़ उत्साह से भर उठी, बाहुबल भी अपने आसन से उठ खड़े हुए। दर्शकदीर्धा दुष्यंत दुष्यंत के शोर से गूंज उठी। दुष्यंत ने एक छलांग के साथ निर्णायक अंतिम वार कर दिया जिसे नरपति ने अपनी ढाल से रोकने का प्रयास तो किया लेकिन दुष्यंत के दूसरे हाथ में थमी ढाल के प्रति वो लापरवाह हो गया जो उसकी कनपटी से टकराई थी। नरपति धराशायी हो चुका था और दुष्यंत उसके सीने पर चढ़ खड़ा हुआ था।
बाहुबल के सामने दुष्यंत पहुंचा तो बाहुबल ने उसे बाहों में भर लिया।
वाह दुष्यंत वाह, तुमने बहुत ही थोड़े समय में बहुत कुछ सीख लिया है, तुम्हारा प्रदर्शन तो मेरी सोच से कहीं अधिक आश्चर्यजनक था। सही कहा ना मैंने विक्रम?” बाहुबल ने अपने छोटे भाई विक्रम की ओर देखते हुए कहा
“निसंदेह महाराजदुष्यंत की वीरता के कारण पूरे विश्व में एक दिन सूर्यनगरी का नाम विख्यात होगा।” विक्रम ने गर्व से कहा था
बाल्यकाल से ही उसमें योद्धा बनने के सभी गुण उपस्थित थेसाथ ही साथ वह चतुर और अपने पिता राजा बाहुबल का आज्ञाकारी पुत्र भी था। सब कुछ था उसके पास, स्नेह करने वाले पिताइतना बड़ा साम्राज्य, सैकड़ों सेवक। दुष्यंत का बाल्यकाल बहुत आनंद में व्यतीत हो रहा था और भविष्य के लिए भी वह निश्चित था। उसने सदा यही जाना था कि एक दिन उसे अपने पिता का स्थान प्राप्त होनी है और वह भी अपने पिता की भाँति एक महान राजा के रूप में जाना जाएगा। इसके विपरीत बाहुबल ने दुष्यंत के लिए कुछ और ही सोचा था। जिस प्रकार बाहुबल ने अपना जीवन मानव धर्म को समर्पित कर दिया था उसी प्रकार वे दुष्यंत के जीवन को भी सार्थक बनाना चाहते थे। और इसलिए उन्होंने दुष्यंत के भविष्य के लिए एक निर्णय ले लिया। उन्होंने अपने इकलौते पुत्र को पूरी तरह मानव जाति के कल्याण हेतु समर्पित करने का इरादा बना लिया था। और इसके लिए सबसे उत्तम मार्ग उन्हे तपोवनी के रूप में नज़र आ रहा था। बाहुबल ने अपने निर्णय को दिशा देने के बारे में सोचा और इसके लिए आवश्यक था महायोद्धा शौर्य से मिलना। बाहुबल ने शौर्य को बुलवाया और उनसे अपने मन की बात कही
महाराज, मैं आपकी सोच का बहुत सम्मान करता हूँ परंतु... मैं आपको अभी किसी भी प्रकार का आश्वासन देने की स्थिति में नहीं हूँ।” शौर्य के जवाब से बाहुबल थोड़ा विचलित से हो गये
परंतु महायोद्धा, क्योंक्या दुष्यंत में कोई कमी शेष है?” बाहुबल ने पूछा
नहीं महाराज, दुष्यंत बहुत ही वीर बालक है और इसमें कोई संदेह नहीं है परंतु…” शौर्य इतना कहकर कुछ रुके
परंतु क्या महायोद्धा?”
महाराज, क्योंकि किसी भी तपोवनी के चुनाव का सबसे पहला नियम यही है कि इसमें किसी की संस्तुति के लिए कोई स्थान नहीं होता है। दुष्यंत बहुत कुशल है परंतु एक तपोवनी होने के लिए जो गुण आवश्यक हैं वह दुष्यंत में हैं या नहीं, यह हम और आप तय नहीं कर सकते।” शौर्य ने कहा तो बाहुबल थोड़ा चिंतित से हो गये
“तो यह कैसे जाना जाएगा महायोद्धा? आप चाहें तो दुष्यंत की परीक्षा ले सकते हैं। मुझे विश्वास है कि दुष्यंत आपके हर मानदंड पर खरा उतरेगा, आप एक बार दुष्यंत को अवसर तो दीजिए।” बाहुबल अभी भी आशाहीन होने को तैयार नहीं थे
महाराज, एक तपोवनी के लिए ऐसी कोई चयन प्रक्रिया होती ही नहीं है।”
कोई तो कसौटी होगी महायोद्धा शौर्यकोई तो चयन प्रक्रिया होगी।”
महाराज, जीवन में अपने आप कुछ घटनाएं और परिस्थितियाँ मिलकर अनजाने में ही तपोवनी की परीक्षा लेती हैं जो सोच विचार कर या जानबूझकर संभव नहीं हो सकता है।” शौर्य ने अपनी विवशता बताई
महायोद्धा, कोई तो रास्ता होगादुष्यंत को मानव जाति के हित में समर्पित करने का।” बाहुबल अभी भी विनती कर रहे थे
हैं महाराजकोई एक नहीं बल्कि सहस्त्र रास्ते हैं मानव कल्याण हेतु कुछ करने के लिए। महाराज, केवल तपोवनी बन कर ही मानव जाति के लिए कुछ किया जा सकता है यह कोई आवश्यक नहीं है। क्या आपने अपने जीवन में बिना एक तपोवनी हुए यह सब नहीं किया हैयह मैं नहीं हर कोई जानता है।” शौर्य बाहुबल को समझाने का प्रयास कर रहे थे
दुष्यंत को महलों में रहने की आदत हैहर समय उसके आस पास सैकड़ों सेवक रहते हैंउसे आदत हो चुकी है हर सुख सुविधा की। जंगल का जीवन अपनाना उसके लिए थोड़ा कठिन होगा परंतु मुझे पूरा भरोसा है कि दुष्यंत आपके स्थान पर आकर आपकी अपेक्षाओं के साथ अन्याय नहीं करेगा।”
महायोद्धा, मैंने अपने जीवन में थोड़ा या बहुत जो भी किया वह आपके सामने कुछ भी नहीं है। मेरी आपसे विनती हैआप बस एक बार दुष्यंत को अपनी परीक्षा में आजमा के देखिए वह आपको निराश नहीं करेगा।” बाहुबल शौर्य को मनाने का हर संभव प्रयास कर रहे थे। “मेरी आपसे विनती है आप इतना शीघ्र कोई निर्णय ना लें। आपको जितना समय चाहिए आप लीजिए परंतु उसे अपनी योग्यता को सिद्ध करने का एक अवसर मिलना चाहिए। मैं आपको वचन देता हूँ कि इन महलों, सेवकों या इन सुख सुविधाओं को मैं दुष्यंत की दुर्बलता नहीं बनने दूंगा। अतिशीघ्र उसे इनके बिना रहना मैं स्वयं सीखा दूंगा।”
महाराज, आप मुझे दुविधा में डाल रहे हैं...” शौर्य भी अपने आप को विचित्र सी स्थिति में महसूस कर रहे थे
अपने आप में कहीं गुम दुष्यंत को पता ही नहीं चला कि कब विधुत उसके पास पहुँच गया था
कहाँ खोए हो दुष्यंतमैं कब से तुम्हें खोजने का प्रयास कर रहा हूँ।” विधुत ने दुष्यंत के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा तो अचानक उसकी तंद्रा भंग हुई
विधुत, तुम कब आए?” दुष्यंत ने चौंकते हुए विधुत से पूछा
मैं तो बस अभी ही आया हूँ परंतु बहुत देर से तुम्हें खोजने का प्रयास कर रहा था। तुम यहाँ एकांत में क्या कर रहे हो मित्र?”
कुछ नहीं विधुत, तुम बताओ क्या कोई विशेष बात है जो तुम मुझे ढूंढ रहे थे?” दुष्यंत ने उठते हुए प्रश्न किया
शायद कुछ विशेष ही है क्योंकि गुरु जी ने तुम्हें शीघ्र बुलाने को कहा है। अब बिना विलंब के हमें गुरु जी के पास चलना चाहिए क्योंकि तुम्हें ढूँढने में समय पहले ही व्यर्थ हो चुका है।” विधुत जल्दी में था
“ओह हाँ, मैं तो भूल ही गया था, मुझे तो सिहोट के लिए निकलना है।” दुष्यंत को जैसे कुछ स्मरण हुआ। “चलो जल्दी, मैं भी ना जाने कैसे भूल गया?”
“सिहोट! वो क्यों?”
“गुरु जी ने वहाँ एक कारीगर को कुछ शस्त्र बनाने का काम सौंपा था और उसने आज का समय दिया था। वो शस्त्र लेने के लिए मुझे जाना था।” दोनों साथ में आश्रम की ओर चल पड़े